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प्रतिविरत-अप्रतिविरत अल्पआरंभी.....का उपपात
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डगमगाता हुआ विश्वास साधना के नाशक और अवरोधक हैं। मार्ग की सत्यता की प्रतीति, अन्यत्र आकर्षण का अभाव और उसकी सफलता का दृढ़ निर्णय साधना के उत्पादक, प्रेरक और पोषक हैं।
लब्धादि पदों के द्वारा बुद्धि के विविध रूपों का निर्देश किया गया है। बुद्धि के संग्राहात्मक धारणात्मक, जिज्ञासात्मक, प्रदेशात्मक और व्यवसायात्मक कार्य का वर्णन है। बुद्धि के इन विविध रूपो से क्रियाशील होने पर ही साधना में सच्ची प्रीति और मुस्तदी की प्राप्ति हो सकती है। ___'निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ है, परमार्थ है, शेष अनर्थ है'-यह अन्तर्जल्प ही साधना की रीढ़ का कार्य करता है। वे अन्य को प्रेरित करने के लिए भी यही उद्घोष करते हैं। __ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा चियत्तंतेउरघरदारप्पवेसा चउद्दसट्ठमुट्ठिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा, समणे णिग्गंथे फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गह-कंबलपायपुंछणेणं ओसह-भेसजेणं पडिहारएणं च पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति।
भावार्थ - वे साफ स्फटिक के समान निर्मल चित्त वाले और कपाट से द्वार को बन्द नहीं रखने वाले अर्थात् सद्दर्शन के लाभ के कारण कहीं भी पाषण्डियों से नहीं डरने वाले-शोभनमार्ग के परिग्रहण के कारण निर्भय होते हैं। लोगों के अन्तःपुर, गृह या द्वार में उनका प्रवेश प्रीतिकर होता है अर्थात् अति-धार्मिकता के कारण सर्वत्र अनाशङ्कनीय होते हैं अर्थात् उन पर किसी प्रकार की शंका नहीं की जाती है। वे चतुदर्शी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पौषध-आत्मा की पुष्टि के लिए आहार, अब्रह्म आदि चार तरह के त्याग की एक दिन-रात की साधना का विशेष शुद्धिपूर्वक पुनः पुनः पालन करते हुए, श्रमण-निर्ग्रन्थ के लिए निर्दोष और ग्रहण करने योग्य अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, औषध-एक द्रव्याश्रित वस्तु यथा- सूंठ आदि भैषज्य-अनेक द्रव्यों की समुदाय रूप वस्तु यथा त्रिफलादि, काम हो जाने पर पुनः लौटा दिये जाने योग्य-पडिहारिय आसन, पाट, निवास स्थान और संस्तारक को प्रतिलाभित करते-देते हुए विचरण करते हैं। - विवेचन - 'ऊसिय...पवेसी' इन तीन पदों का उपर्युक्त अर्थ वृद्ध व्याख्या के अनुसार है। अन्य व्याख्या-'ऊसिय'.......अर्गला से रहित गृहद्वार वाले अर्थात् अतिशय दानी होने के कारण भिक्षुओं के प्रवेश में कोई रुकावट नहीं थी। 'अवंगुय....' औदार्य के कारण उनके घर के द्वार सदा खुले रहते थे। 'चियत्त'.... वे दूसरों के घरों में और यहाँ तक कि राजा के अन्तःपुर में भी चले जाते तो उन पर किसी प्रकार की शंका या अविश्वास नहीं किया जाता था। . विहरित्ता भत्तं पच्चक्खंति। ते बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदिति। छेदित्ता आलोइय पडिक्कंता समाहिपत्ता, कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं अच्चुए
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