Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 205
________________ १९६ उववाइय सुत्त पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविखंभेणं, एगाजोयणकोडी बायालीसं सयसहस्साइं, तीसं च सहस्साइं, दोण्णि य अउणापण्णे जोयणसए, किंचि विसेसाहिए परिरएणं। ___ वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी पैंतालीस लाख योजन की लम्बी और पैंतालीस लाख योजन की चौड़ी है । और एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ गुणपचास योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। ईसिपब्भारा य णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोयणिए खेत्ते, अट्ठजोयणाई बाहल्लेणं।तयाऽणंतरंमायाए मायाए पडिहायमाणी पडिहायमाणी सव्वेसुचरिमपेरंतेसु मच्छिय-पत्ताओ तणुयतरा, अंगुलस्स असंखेजइभागं बाहल्लेणं पण्णत्ता। भावार्थ - वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी बहुमध्य देशभाग में, आठ योजन जितने क्षेत्र में, आठ योजन मोटी है। इसके बाद थोडी-थोडी कम होती हुई, सबसे अन्तिम किनारों पर मक्खी की पांख से भी पतली है। उस किनारे की मोटाई अंगुल के असंख्येय भाग जितनी है। ईसीपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस णामधेजा पण्णत्ता। तं जहा-ईसी इ वा, इसीपब्भारा इवा, तणू इवा, तणुतणूइ वा, सिद्धी इवा, सिद्धालए इ वा, मुत्ती इ वा, .. मुत्तालए इवा, लोयग्गे इ वा, लोयग्गथूभिया इवा, लोयग्गपडिवुज्झणा इ वा, सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहा इ वा। भावार्थ - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम हैं। जैसे-१. ईषत्-अल्प, हलकी या छोटी, २. ईषत्प्राग्भारा-अल्प, ३. तनु-पतली, ४. तनुतनु-विशेष पतली ५. सिद्धि ६. सिद्धालय-सिद्धों का घर ७. मुक्ति, ८. मुक्तालय ९. लोकाग्र, १०. लोकाग्रस्तृपिका-लोकाग्र का शिखर ११. लोकाग्रप्रतिबोधनाजिसके द्वारा लोकाग्र जाना जाता हो ऐसी और १२. सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को सुखावह (सुखदाता)। विवेचन - सिद्ध भगवन्तों के समीप होने के कारण इस पृथ्वी को सिद्धि, सिद्धालय, मुक्तालय आदि शब्दों से कहा गया है। प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूतास्तुः तरवः स्मृताः। जीवाः पंचेन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषा सत्त्वा उदीरिताः॥ अर्थ - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को प्राण कहते हैं, वनस्पति को भूत कहते हैं, पंचेन्द्रिय को जीव कहते हैं। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय इन चार स्थावरों को सत्त्व कहते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव जो वहाँ पृथ्वी आदि रूप से उत्पन्न होते हैं, उन सब जीवों के लिए वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी सुखदायी होती है क्योंकि वहाँ शीत ताप आदि दुःखों का अभाव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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