Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 208
________________ सिद्ध-स्तवना १९९ के शरीर की अवगाहना इस चरम भव में जितनी होती है, उसका एक तिहाई भाग कम होकर दो तिहाई भाग प्रदेशों की सिद्ध अवस्था में अवगाहना होती है। जैसे कि यहाँ से तीन हाथ के शरीर की अवगाहना वाला जीव सिद्ध होता है, तो सिद्ध अवस्था में उसके आत्म प्रदेशों की अवगाहना दो हाथ की रहती है। इसी प्रकार छह हाथ वाले की चार हाथ और नौ हाथ वाले की छह हाथ की अवगाहना रहती है। इसी प्रकार सात हाथ वाले की चार हाथ सोलह अंगुल (२४ अंगुल का एक हाथ होता है) की अवगाहना सिद्ध अवस्था में रहती है। तिण्णि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया॥५॥ भावार्थ - तीन सौ तैंतीस धनुष और धनुष का तीसरा भाग अर्थात् ३२ अंगुल, यह सर्वज्ञ कथित सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना जानना चाहिए। चत्तारि य रयणीओ, रयणित्तिभागणिया य बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमओगाहणा भणिया॥६॥ भावार्थ - चार हाथ और तीसरा भाग कम एक हाथ-सोलह अंगुल यह सर्वज्ञकथित सिद्धों की मध्यम अवगाहना जानना चाहिए। एक्का य होइ रयणी, साहीया अंगुलाइं अट्ठ भवे। एसा खलु सिद्धाणं, जहण्णओगाहणा भणिया॥७॥ भावार्थ - एक हाथ और आठ अंगुल अधिक-यह सर्वज्ञकथित सिद्धों की जघन्य अवगाहना है। विवेचन - प्रश्न - अधिक से अधिक कितनी ऊँचाई वाले सिद्ध हो सकते हैं। उत्तर - पण्णवणा सूत्र में तथा इसी सूत्र की इस पांचवीं गाथा के अनुसार उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले सिद्ध हो सकते हैं। ___ प्रश्न - टीकाकार ने मरुदेवी माता की ५२५ धनुष की अवगाहना बताई हैं यह कैसे ? ___उत्तर - मरुदेवी माता की अवगाहना ५०० सौ धनुष की ही थी इससे अधिक नहीं इसलिए टीकाकार का ५२५ धनुष लिखना यह आगम सम्मत नहीं है तथा वृद्ध अवस्था के कारण उनका शरीर सिकुड गया था अथवा वे बैठी हुई सिद्ध हुई थी इसलिए अवगाहना कम हो गई थी टीकाकार का यह लिखना भी आगमानुकूल नहीं है, क्योंकि सिद्ध होने वाला जीव चाहे बैठा हुआ हो, सोया हुआ हो या आडा टेडा हो अथवा देव द्वारा संहरण करके समुद्र या कुएं तालाब आदि पानी में ऊपर से ऊँधा डाला जाता हुआ हो अर्थात् सिद्ध होने वाले जीव किसी भी अवस्था में हो किन्तु सिद्ध गति में जाते समय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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