Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 213
________________ २०४ उववाइय सुत्त केवलणाणुवउत्ता, जाणंति सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठी अणंताहिं ॥ १२ ॥ भावार्थ - केवलज्ञानोपयोग से सभी वस्तुओं के गुण और पर्यायों को जानते हैं और अ केवलदृष्टि से सर्वतः - चारों ओर से देखते हैं । विवेचन - (अ) इस गाथा के द्वारा केवलज्ञान और केवलदर्शन का भेद स्पष्ट किया गया है। जब पदार्थों को सर्वतः देखा जाता है, तब वे पदार्थ सावयव होते हुए भी अभिन्न रूप से दिखाई देते हैं और जब उनके गुणादि की ओर दृष्टि रहती है, तब उनमें भेद ही भेद दिखाई देता है। (आ) द्रव्य - गुण और पर्याय का आश्रय । गुण-पदार्थव्यापी अंश अर्थात् पदार्थव्यापी ऐसा अंश, जो वैसे ही अन्य अंशों के साथ पदार्थ में अविरोधी रूप से रहता है। पर्याय- पदार्थ की क्रमवर्ती अवस्था । (इ) सिद्ध अन्तर्मुखही होते हैं - बहिर्मुख नहीं। यह जो सर्व द्रव्यादि का ज्ञान होता है, वह उनकी अन्तर्मुखता के कारण ही होता है। आत्मा तो स्व- उपयोग का ही स्वामी है। अर्थात् स्व-उपयोग की लीनता में ही यह विशेषता है कि उसमें सभी द्रव्यादि का ज्ञान स्वतः होता है। आगम काल के पश्चात् जो ये भेद हुए हैं कि केवली व्यवहार दृष्टि से ही सर्व द्रव्यादि को जानता है और निश्चयदृष्टि सेतो अपनी आत्मा को ही जानता है - वे मात्र समझने के लिये ही है। वस्तुतः स्व-उपयोग में व्यवहारनिश्चय रूप भिन्न दृष्टियों से कोई विशेष अन्तर नहीं है। वि अत्थि माणुसणं, तं सोक्खं ण वि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं ॥ १३॥ भावार्थ- न तो मनुष्यों को ही वह सुखानुभव है और न सभी देवों को ही, जो सौख्य अव्याबाध-बाधा-पीड़ा रहित अवस्था को प्राप्त सिद्धों को है। जं देवाणं सोक्खं, सव्वद्धापिंडियं अनंतगुणं । णय पावइ मुत्तिसुहं, ताहिं वग्गवग्गूहिं ॥ १४ ॥ भावार्थ - तीनों काल से गुणित जो देवों का सौख्य है, उसे अनन्त बार वर्गवर्गित किया जाय, ऐसा वह अनन्तगुण सौख्य मुक्तिसौख्य के बराबर नहीं हो सकता है। विवेचन - जितनी संख्या हो, उतनी संख्या से गुणित करने पर जो गुणनफल आता है, उसे वर्ग कहा जाता है। जैसे-दो से दो को गुणित करने पर 'चार' वर्ग हुआ। जो उस वर्ग का भी वर्ग हो, उसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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