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उववाइय सुत्त
उसकी हम इस प्रकार संभावना करते हैं, कि-यहाँ अनन्त राशि से गुणित होने पर भी-अनन्तवर्ग अर्थात् अनन्तानन्त रूप अतीव महास्वरूप से अपवर्तित होने पर, किंचिद् अवशेष रहता है, वह राशि भी अति महान् है। उससे भी सिद्धों की सुखराशि महान् है-ऐसी बुद्धि शिष्य में उत्पन्न करने के लिये अथवा गणितमार्ग से व्युत्पत्ति करने के लिये-यह प्रयास है।
अन्य इस गाथा की व्याख्या इस प्रकार करते हैं-सिद्ध के सुखों की पर्यायराशि xxx जो सर्वसमयों से सम्बन्धित है, उसे सङ्कलित की-उस सङ्कलित राशि को अनन्तबार वर्गमूल से अपवर्तित की अर्थात् अत्यन्त लघु बनाई। जैसे-सर्वसमय सम्बन्धी सिद्धों की सुखराशि ६५५३६ है। इसे वर्ग से अपवर्तित करने पर २६६ हुई। वह स्ववर्ग से अपवर्गित होने पर १६, सोलह से चार और चार से दोयह अतिलघु राशि प्राप्त हुई। वह भी सम्पूर्ण आकाश प्रदेशों में भी नहीं समा सकती है।
जह णाम कोइ मिच्छो, णगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। ण चएइ परिकहेउं, उवमाए तहिं असंतीए॥१६॥
भावार्थ - जैसे कोई म्लेच्छ-जंगली मनुष्य बहुत तरह के नगर के गुणों को जानते हुए भी, वहाँ-जंगल में-नगर के तुल्य कोई पदार्थ नहीं होने से, नगर के गुणों को कहने में समर्थ नहीं हो सकता है।
इय सिद्धाणं सोक्खं, अणोवमं णस्थि तस्स ओवम्म। किंचि विसेसेणेत्तो, ओवम्ममिणं सुणह वोच्छं॥१७॥
भावार्थ - वैसे ही सिद्धों का सुख अनुपम है। यहाँ उसकी बराबरी का कोई पदार्थ नहीं है। फिर भी कुछ विशेष रूप से उसकी उपमा कहता हूँ-सो सुनो। विवेचन -
म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुलः। अन्यदा तत्र भूपालो, दुष्टाश्वेन प्रवेशितः॥१॥ म्लेच्छेनासौ नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम्। प्रापितश्च निजं देशं, सोऽपि राज्ञा निजं पुरम्॥२॥ ममायमुपकारीति, कृतो राज्ञाऽतिगौरवात्। विशिष्टभोगभूतीनां भाजनं जनपूजितः॥३॥ ततः प्रासादभंगेषु, रम्येषु, काननेषु च। वृत्तो विलासिनीसाथै क्ते भोगसुखान्यसौ॥४॥
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