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सिद्ध-स्तवना
अन्यदा प्रावृषः प्राप्तौ मेघाडम्बर मण्डितम् । व्योम दृष्ट्वा ध्वनिं श्रुत्वा, मेघानां स मनोहरम् ॥ ५॥ जातोत्कण्ठो दृढं जातो ऽरण्यवासगमं प्रति । विसर्जितश्च राज्ञाऽपि प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः ॥ ६ ॥ पृच्छन्त्यरण्यवासास्तं, नगरं तात ! कीदृशम् ? । स स्वभावान् पुरः सर्वानु, जानात्येव हि केवलम् ॥ ७ ॥
न शशाक तकां (तरां) तेषां गदितुं स कृतोद्यमः ।
वने वनेचराणां हि नास्ति सिद्धोपमा यतः ( तथा ) ॥ ८ ॥
भावार्थ - एक म्लेच्छ किसी महारण्य में रहता था। राजा दुष्ट अश्व के द्वारा वहाँ पहुँच गया अर्थात् जंगल को प्राप्त हो गया ॥ १ ॥ उस म्लेच्छ ने राजा को देखा और उसका यथोचित सत्कार किया। जब वह राजा स्वदेश को लौटा तो उस म्लेच्छ को भी साथ ले गया ॥ २ ॥ राजा ने अपना उपकारी जानकर, उसे विशिष्ट भोग साधन दिये और उसे जन-पूजित बनाया ॥ ३ ॥ उसने प्रासादशिखरों पर और रम्य बगीचों में विलासिनियों से घिरे रह कर, भोगसुखों को भोगा ।। ४ ॥ वर्षा ऋतु आई। बादलों से गगन मण्डित हो गया। वह आकाश को देख कर और मनोहर मेघध्वनि को सुन कर, अरण्य में जाने के लिये उत्सुक हुआ। राजा ने भी उसे विसर्जित किया और वह जंगल में गया ।। ५ ॥६ ॥ जंगल निवासी उसे पूछते हैं- 'तात ! नगर कैसा है ?' वह नगर के सभी स्वभावों को जानता है ही । किन्तु उद्यम करने पर भी, वह वन में वनचरों को कहने में समर्थ नहीं हो सका। ऐसे ही सिद्ध की उपमा भी नहीं है ॥ ७ ॥८ ॥
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जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोइ ।
तण्हा-छुहा- विमुक्को, अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो ॥ १८ ॥
भावार्थ - जैसे कि कोई पुरुष सभी इच्छित गुणों से युक्त भोजन को करके, भूख-प्यास से रहित होकर, जैसे अमित तृप्त-विषयों की प्राप्ति हो जाने से, उत्सुकता की निवृत्ति से उत्पन्न प्रसन्नता से युक्त हो जाता है।
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इंय सव्वकालतित्ता, अतुलं णिव्वाणमुवगया सिद्धा ।
सासय मव्वाबाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ १९ ॥
को
भावार्थ- वैसे ही सर्वकाल तृप्त, अतुल शान्ति को प्राप्त सिद्ध शाश्वत और अव्याबाध सुख प्राप्त होकर सुखी होकर स्थित रहते हैं ।
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