Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 214
________________ सिद्ध-स्तवना mom........................... वर्गवर्ग कहते हैं। जैसे-दो का वर्ग चार और चार का वर्ग सोलह। ऐसे अनन्त बार वर्गवर्गित देवों का सुख, सिद्धों के सौख्य के तुल्य नहीं हो सकता। चूर्णिकार ने-'णन्ताहि.....' पद का सम्बन्ध 'मुत्तिसुहं' के साथ जोड़कर यह अर्थ किया हैअनन्त खण्ड खण्डों से खण्डित सिद्धसख-अर्थात सिद्धों के सख के अनन्तानन्ततम खण्ड की समता भी, देवों का सर्वकालिक सुख, नहीं कर सकता है। क्योंकि देवों का सुख पौद्गलिक सुख से मिश्रित है। जबकि सिद्धों का सुख विशुद्ध आत्मिक है। सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वद्धापिंडिओ जइ हवेजा। सोऽणंतवग्गभइओ, सव्वागासे ण माएजा॥१५॥ भावार्थ - एक सिद्ध के सुख को तीनों काल से गुणित करने पर जो सुख की राशि हो, उसे अनन्तवर्ग से भाजित करने पर जो सुख की राशि उपलब्ध होती है, वह सुखराशि भी सम्पूर्ण आकाश में नहीं समा सकती। विवेचन - यहाँ विशिष्ट आह्लाद रूप सुख ग्रहण किया है। शिष्टजनों की सुख शब्द की प्रवृत्ति जिसके लिये होती है, उस आह्लाद की अवधि करके वहाँ से आरम्भ करके, एक-एक गुण की वृद्धि के तारतम्य के द्वारा, उस आह्लाद की यहाँ तक वृद्धि करे कि वह अनन्तगुण वृद्धि के द्वारा निरतिशय निष्ठा को प्राप्त हो जाय अर्थात् कल्पनातीत राशि हो जाय। ऐसा वह अत्यन्त, उपमा से रहित और ऐकान्तिक औत्सुक्य निवृत्ति रूप, निश्चलतम महोदधि के समान चरम आह्लाद ही सिद्धों के सदा होता है। उस प्रथम चार से-संभवतः सुखानुभव के पहले स्तर से ऊपर तक के अन्तरालवर्ती आह्लाद के तारतम्य के द्वारा जो विशेष-विशेष रूप से स्तर बनते हैं, वे समस्त आकाश प्रदेशों से भी अधिक होते हैं। अत: कहा-'सव्वागासे ण माएजा'। यदि अन्यथा हो तो उनकी प्रतिनियत देश में अवस्थिति किस प्रकार हो सकती है-यों आचार्य कहते हैं। इस गाथा का वृद्धोक्त विवरण का यह आशय है-'यह जो सखभेद है, वे सिद्ध सख के पर्यायरूप से कहे गये हैं। उस अपेक्षा से क्रम से उत्कृष्ट करते हुए उस सुख के भेद को उपचार से अनन्ततम स्थानवर्तिता की प्राप्ति होती है। असद्भाव स्थापना से उस सुखराशि को हजार मान लिया जाय और समयराशि को सौ। हजार को सौ से गुणित किया तो लाख हुए। यह गुणन किया गया-सर्व समय संबंधी सुख पर्यायों की उपलब्धि के लिए तथा अनंत राशि को 'दश' से मान लिया। उसका वर्ग हुआ सौ। वर्ग से प्राप्त संख्या सौ के द्वारा लक्ष को अपवर्तित किया तो हजार ही हुए। अतः पूज्यों ने कहा'समीभूत-तुल्यरूप ही है-यह आशय है।' यहाँ जो यह सुखराशि का गुणन और अपवर्तन हुआ है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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