________________
१९८
-
उववाइय सुत्त
विवेचन - जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है। अतः यह शङ्का उठना सहज है कि-सिद्ध हमेशा भ्रमणशील ही रहते हैं या कहीं रुकते हैं ?-यदि रुकते हैं तो रुकने का क्या कारण है ? जिसका निमित्त मिलने पर रुकते हैं, तो क्या उससे टकराकर वापिस लौटते हैं या कहीं स्थित रहते हैं ? वे जहाँ स्थित होते हैं-वहीं शरीर छोड़ते हैं या अन्यत्र? अर्थात् उनका जो स्थान है, वहाँ जाकर देह छोड़ते हैं या अन्यत्र ? जहाँ देह त्यागते हैं, वहीं कृतकृत्य हो जाते हैं या अन्यत्र ? प्रायः ऐसी जिज्ञासाएँ इन प्रश्नों के मूल में रही
अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया। इहं बोदिं चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ॥२॥
भावार्थ - सिद्ध अलोक से रुकते हैं। लोकाग्र पर स्थित होते हैं और मनुष्य लोक में देह को छोड़ कर वहाँ-लोकाग्र पर जा कर, सिद्ध अर्थात् कृतकृत्य होते हैं।
विवेचन - प्रतिहत अर्थात् आनन्तर्यवृत्ति मात्र का स्खलन। सिद्धों की अलोक में गति बन्द हो जाने के कारण-१ गतिसहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय का अभाव २. शरीर-त्याग के प्रयोग से इतनी ही गति होना, ३. सिद्ध जीवों का लौकिक द्रव्य होना-आदि। तिरछे या नीचे गति नहीं करने का कारणजीवद्रव्य का मुक्तता के कारण ऊर्ध्वगमन स्वभाव। देहादि से मुक्ति तो मनुष्य लोक में ही हो जाती है। पूर्णतः मुक्ति और सिद्ध में एक समय का भी अन्तर नहीं होता है। किन्तु निश्चयदृष्टि से लोकाग्र पर प्रतिष्ठित हो जाने के बाद ही उन्हें सिद्ध माना जाता है।
जं संठाणं तु इहं, भवं चयंतस्स चरिमसमयंमि। आसी य पएसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स॥३॥
भावार्थ - मनुष्यलोक के भव के देह में जो प्रदेशघन आकार, अन्तिम समय में बना था, वही आकार उनका वहाँ पर होता है।
दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज संठाणं। तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया॥४॥
भावार्थ - छोटा या बड़ा, जैसा भी अन्तिमभव में आकार होता है, उससे तीसरे भाग जितने कम स्थान में सिद्धों की व्याप्ति-जिनेश्वर देव के द्वारा कही गई है।
विवेचन - प्रश्न - सिद्ध अवस्था में आत्म प्रदेशों की अवगाहना कितनी होती है ? और इसका क्या नियम है ? । उत्तर - उपरोक्त प्रश्न का उत्तर इस गाथा में दिया गया है। वह यह है कि-सिद्ध होने वाले जीव
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org