Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 203
________________ १९४ विवेचन प्रश्न तीर्थंकर भगवन्तों के शरीर की ऊँचाई कितनी होती है ? उत्तर - तीर्थंकर भगवन्तों के शरीर की ऊँचाई जघन्य सात हाथ की होती है और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है। इसलिए यहाँ गद्य पाठ में सिद्ध होने वाले जीवों की जो जघन्य अवगाहना बताई है वह तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा समझना चाहिये। क्योंकि सामान्य मनुष्य तो जघन्य दो हाथ की ऊँचाई वाले भी सिद्ध होते हैं । यह आगे की सातवीं गाथा में बताया गया है। उववाइय सुत्त - प्रश्न- क्या पांच सौ धनुष से अधिक ऊँचाई वाले भी सिद्ध होते हैं ? उत्तर - नहीं !, पांच सौ धनुष से अधिक ऊँचाई वाले जीव सिद्ध नहीं हो सकते हैं। टीकाकार ने पांच सौ धनुष से अधिक ऊँचाई वाले भी सिद्ध हो सकते हैं ऐसा जो लिखा है वह आगम सम्मत नहीं है। वाणं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिज्झति ? - गोयमा ! जहणणेणं साइरेगट्ठवासाउए, उक्कोसेणं पुव्व-कोडियाउए सिज्झति । भावार्थ - हे भन्ते ! सिद्ध्यमान जीव कितने आयुष्य में सिद्ध होते हैं ? - में गौतम ! जघन्य आठ वर्ष से अधिक आयुष्य में और उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की आयुष्य सिद्ध होते । अर्थात् आठ वर्ष से ऊपर की आयुष्य से लगाकर एक करोड़ पूर्व तक की आयुष्य तक सिद्ध हो सकते हैं। इससे कम या ज्यादा आयुष्य वाले मनुष्य सिद्ध नहीं हो सकते हैं। प्रश्न- एक पूर्व कितने वर्षों का होता है ? उत्तर ७०५६०००००००००० संख्या को व्यवहार में इस प्रकार बोल सकते हैं सात नील; छप्पन खरब, इतने वर्षों का एक पूर्व होता है। सिद्धों का निवास स्थान अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ? - णो इणट्टे समट्ठे । एवं जाव अहेसत्तमाए । Jain Education International भावार्थ - हे भन्ते ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे सिद्ध निवास करते हैं ? - नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों के विषय में समझना चाहिए। विवेचन - यद्यपि पहले 'तत्थ सिद्धा भवंति' इस सूत्र के द्वारा सिद्धों के निवास स्थान का सङ्केत किया जा चुका है। तथापि शिष्य की जिज्ञासा के अनुसार कल्पित विविध लोकाग्र भागों का निषेध करते हुए वास्तविक लोकाग्र के स्वरूप का विशेष बोध देने के लिये प्रश्न-उत्तर किये गये हैं । शिष्य की कल्पना है, कि 'रत्नप्रभा पृथ्वी का अधोभाग भी किसी अपेक्षा से लोकाग्र है।' इसी प्रकार शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूम्रप्रभा, तमः प्रभा और तमस्तमः प्रभा इन पृथ्वियों के - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222