Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 201
________________ १९२ उववाइय सुत्त 44M अन्य मत में आठ सिद्धियाँ मानी गई है। यथाअणिमा महिमा चेव, लघिमा गरिमा तथा। प्राप्तिः प्राकाम्य मीशित्वं, वशित्वं चाष्ट सिद्धयः॥ अर्थ - १. अणिमा - छोटे से छोटा हो जाना। परमाणु के समान २. महिमा - बड़े से बड़ा हो - जाना। मेरु पर्वत के समान ३. लघिमा-हलके से हलका हो जाना। आकड़े की रुई के समान ४. गरिमा-भारी से भारी हो जाना। वज्र के समान। ५. प्राप्ति-इच्छा हो वहाँ प्राप्त हो जाना। जैसे कि जमीन पर बैठे हुए मेरु पर्वत पर हाथ फेर देना ६. प्राकाम्य-इच्छित वस्तु को प्राप्त कर लेना ७. ईशित्वं -ईश्वर पना-स्वामी पना ८. वशित्वं-सबको अपने वश में कर लेना। इन आठ सिद्धियों को जो प्राप्त कर लेते हैं वे सिद्ध बन जाते हैं, कृतार्थ बन जाते हैं। कठिन संसार समुद्र को तिर कर पार हो जाते हैं। वे सदा निवृत्त हो जाने के कारण हमेशा प्रसन्न चित्त रहते हैं। ऐसा सिद्धों का स्वरूप है। ... इस प्रकार के मत का खण्डन 'असरीरा' विशेषण से होता है जो जीव की सिद्धि नहीं मानते हैं और जो जीव की मुक्तावस्था मानकर भी पुनः लौटने वाला मानते हैं, उनके मतों का निषेध क्रमशः 'सादिया' और 'अपज्जवसिया' विशेषण से हो जाता है। 'जीव घणा' का अर्थ अन्तर रहित होने के कारण वे सिद्ध जीव प्रदेश मय रहते हैं। अन्त के शरीर की अवगाहना से सिद्ध अवस्था में योग निरोध काल में शरीर के छेदों के पूर्ण हो जाने से तीन भाग कम उनकी अवगाहना रहने से जीव प्रदेश घन हो जाते हैं। जो मुक्त अवस्था में चेतना और ज्ञानादि नहीं मानते हैं, उनके मत का निषेध देसणणाणोवउत्ता' विशेषणों से होता है। जो सिद्ध आत्माओं का अनुकंपादि कारणों से पुनरवतार मानते हैं, उनका मत "णिद्रियट्टा' विशेषण पद से निर्मूल हो जाता है। सिद्धों के परभाव के कर्तृत्त्व का निषेध 'णिरेयणा'निरेजना शब्द से, पर से प्रभावित होने का निषेध 'णीरया' शब्द से, पर से आबद्ध होने का निषेध 'णिम्मला' पद से, किसी से छले जाने का एवं अज्ञान अंधकार का निषेध 'वितिमिरा' शब्द से और आत्मभाव में स्थिति का प्रतिपादन 'विसद्धा' शब्द से होता है। बहुवचनान्त विशेषण इसलिए हैं किसिद्ध अनन्त हैं और स्वरूपतः एक-से होते हुए भी व्यक्तितः सब भिन्न हैं। सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तेणं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपजवसिया जाव चिटुंति?-गोयमा ! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवइ। एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दवे पुणरवि जम्मुप्पत्तीण भवइ।से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपजवसिया जाव चिटुंति। भावार्थ - हे भन्ते ! आप किस कारण से इस प्रकार कहते हैं, कि-वहाँ वे सिद्ध होते हैं, सादि अन्त रहित यावत् शाश्वत रहते हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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