Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 187
________________ १७८ उववाइय सुत्त कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तेहिं तेसिं गई जाव बावीसं सागरोवमाई ठिई। आराहया। सेसं तहेव॥२०॥ भावार्थ - फिर आहारादि का त्याग करते हैं। बहुत से भोजन के भक्तों को बिना खाये-पीये काटते हैं। .....आलोचना प्रतिक्रमण करके, समाधि को प्राप्त होते हैं। काल के समय में काल करके उत्कृष्ट अच्युत कल्प-बारहवें स्वर्ग में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी बाइस सागरोपम की स्थिति. होती हैं। वे जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा आराधक होते हैं। शेष पूर्ववत्। अनारम्भी.........का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति। तं जहा-अणारंभा. अपरिग्गहा धम्मिया जाव कप्येमाणा सुसीला सुव्वया सुपडियाणंदा साहू सव्वाओं पाणाइवायाओ पडिविरया जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया। सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया। भावार्थ - ये जो ग्राम-नगर यावत् सन्निवेशों में मनुष्य होते हैं। जैसे - अहिंसक अर्थात् आरम्भ के सर्वथा त्यागी, अपरिग्रही, श्रुतचारित्र धर्म के धारक यावत् धर्मानुसार ही वृत्ति करने वाले सुन्दर शील वाले, सुन्दर व्रतों वाले शुभभाव के सेवन में सदा प्रसन्न-उत्साह युक्त, साधु-आत्मभाव की साधना में तल्लीन-जो सर्वथा प्राणातिपात के त्यागी यावत् सर्वथा परिग्रह के त्यागी यावत् सर्वतः क्रोध, मान, माया लोभ यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक सभी पापों के त्यागी होते हैं। सव्वाओआरंभसमारंभाओपडिविरया।सव्वाओकरण-कारावणाओपडिविरया। सव्वाओ पयण-पयावणाओ पडिविरया। सव्वाओ कुट्टणपिट्टणतजणतालणवहबंधपरिकिलेसाओ पडिविरया। सव्वाओ ण्हाणमहणवण्णगविलेवण सद्दफरिसरसरूवगंध-मल्लालंकाराओ पडिविरया। जेयावण्णे तहप्पगारा सावजजोगोवहिया कम्मंता परपाण परियावणकरा कजंति, तओ वि पडिविरया जावज्जीवाए। . भावार्थ - सर्वथा आरम्भ, समारम्भ के त्यागी होते हैं और दूसरों से करने-कराने और अनुमोदन के त्यागी होते हैं तथा पचन-पचावन (पकाने-पकवाने) से कूटने-पीटने, तिरस्कार करने, मार मारने, वध करने, बांधने और दुःखित करने या बाधा उत्पन्न करने के सर्वथा त्यागी होते हैं तथा स्नान, मर्दन, वर्णक-उबटन, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध, माल्य और अलङ्कार से निवृत्त हो चुके हैं और भी जो प्राप्त होने वाले इसी प्रकार के दूसरों के प्राणों को परितप्त करने वाली पाप क्रिया से युक्त और कूड-कपटादि आवेश से जन्य कर्माशों को करते हैं-उनसे भी वे जीवन भर के लिए निवृत्त होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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