Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 188
________________ १७९ अनारम्भी......का उपपात ................mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm से जहाणामए अणगारा भवंति-इरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरंति। तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाणाणं अत्थेगइयाणं अणंते जाव केवलंवरणाण-दंसणे समुप्पज्जइ। भावार्थ - जैसे कि कोई-यथानामक अनगार होते हैं-ईर्यासमिति में अर्थात् चलने, फिरने में, भाषा में यत्नावान्....यावत् निर्ग्रन्थ-प्रवचन को ही सन्मुख रखते हुए या दृष्टि के आगे रखकर, विचरण करते हैं। इस प्रकार की चर्या से विचरण करते हुए उन भगवन्तों में से कुछ को अनन्त अनुत्तर केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न होता है। ते बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणंति। पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खंति। जाव पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताइं अणसणाइं छेदेति।छेदित्ता जस्सट्ठाए कीरइ णग्गभावे जाव अंतं करंति। भावार्थ - वे बहुत वर्षों तक केवली अवस्था में विचरण करते हैं। फिर भात-पानी का त्याग करते हैं। बहुत से भोजन के भक्तों को निराहार रहकर काट देते हैं। फिर वे जिस अर्थ के लिए देह के साज-संवार से विरक्त बने थे। यावत् उस अर्थ को पाकर सब दुःखों का अन्त कर देते हैं। . जेसि पि य णं एगइयाणं णो केवलवरणाणदंसणे समुप्पज्जइ, ते बहूई वासाइं छउमत्थपरियागंपाउणंति।पाउणित्ताआबाहे उप्पण्णेवाअणुप्पण्णेवा भत्तंपच्चक्खंति। तेबहई भत्ताइंअणसणाएछेदेति।छेदित्ताजस्सट्टाएकीरइणग्गभावेजावतमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं ऊसासणीसासेहिं अणंतं अणुत्तरं णिव्वाघायं णिरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदंसणं उप्पाडिंति। तओ पच्छा सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिति। - भावार्थ - और कइयों को केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न नहीं होता है। वे. बहुत वर्षों तक छद्मस्थ-कर्मावरण से युक्त अवस्था में विचरण करते हैं। फिर किसी रोगादि बाधा के उत्पन्न होने या नहीं होने पर भात-पानी को त्याग देते हैं। बहुत से भोजन के भक्तों को निराहार.....बिताकर, जिस ध्येय से धारण किया था-नग्न भाव उस ध्येय की आराधना करके, अन्तिम श्वास-निःश्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करते हैं। उसके बाद सिद्ध होंगे यावत् दुःखों का नाश करेंगे। विवेचन - केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न होने के बाद जीव उसी भव में मोक्ष चला जाता है। इसलिए मूल पाठ में 'सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिति' के स्थान पर 'सिझंति जाव अंतं करेंति' अपठ उचित लगता हैं, किन्तु मूल प्रति में वैसा ही पाठ है इसलिए यह भविष्यत् कालीन पाठ ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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