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केवलिसमुद्घात के पुद्गल
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केवलिसमुद्घात के पुद्गल ४२-अणगारेणंभंते !भाविअप्पा केवलि-समुग्घाएणं समोहणित्ता केवलकप्पं लोयं फुसित्ता णं चिट्ठइ ?-हंता चिट्ठइ।
भावार्थ - हे भन्ते ! भावित आत्मा अनगार केवलिसमुद्घात (मुक्ति के निकट अधिकारी आत्मा के कर्मों की साम्यावस्था के लिये होने वाली एक विशिष्ट प्रकार की स्वाभाविक आत्मिक प्रक्रिया) से समवहत होकर, सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करके, स्थित रहते हैं ?-हाँ ! स्थित रहते हैं।
विवेचन - जीव-परिणति या अध्यवसाय विशेष से आत्म-प्रदेश संकुचित विस्तृत होकर कर्मप्रदेशों को झाड़ देते हैं-उसे समुद्घात कहते हैं। जैसे कि-पक्षी अपने पंखों पर लगी हुई धूलि या जल की बूंदें उन्हें फैला कर सिकोड़ कर झाड़ देते हैं।
से णूणं भंते ! केवलकप्पे लोए तेहिं णिजरा पोग्गलेहिं फुडे ? - हंता फुडे।
भावार्थ - हे भन्ते ! क्या उन खिरे हुए पुद्गलों से सम्पूर्ण लोक व्याप्त हो जाता है ? - हाँ व्याप्त हो जाता है।
छउमत्थे णं भंते ! मणुस्स तेसिं णिजरा पोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं, गंधेणं गंध, रसेणं रसं, फासेणं फासं जाणइ? पासइ?-गोयमा ! णो इणद्वे समढे। . भावार्थ - हे भन्ते ! छद्मस्थ मनुष्य क्या उन निर्जरित हुए पुद्गलों के किञ्चित् वर्णरूप से वर्ण को, गन्धरूप से गन्ध को, रस रूप से रस को, स्पर्श रूप से स्पर्श को जानता और देखता है? -
. - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा के पुद्गलों को नहीं जानता और नहीं देखता है।
से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिजरा पोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वण्णं जाव जाणइ पासइ ?
भावार्थ - हे भन्ते ! आप यह किस आशय से कहते हैं, कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा के पुद्गलों को नहीं जानता और नहीं देखता है।
गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वद्दीवसमुद्दाणं सव्वब्भंतरए सव्वखुड्डाए, वट्टे तेल्लपूयसंठाणसंठिए, वट्टे रह चक्कवालसंठाणसंठिए, वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए, वढेपडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए, एक्कंजोयणसयसहस्सं,आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयण-सयसहस्साइंसोलससहस्साई, दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलियं च किंचि विसेसाहिए। परिक्खेवेणं पण्णत्ते।
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