Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 183
________________ १७४ उववाइय सुत्त होते हैं। वहाँ उनकी एकतीस सागरोपम की स्थिति होती हैं। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं। शेष पूर्ववत्। विवेचन - ये निह्नववाद क्रमशः जमाली, तिष्यगुप्त, आषाढाचार्य के शिष्य, अश्वमित्र, गंगाचार्य, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल से उत्पन्न हुए थे। जमाली को छोड़ कर, शेष निह्नवों का आविर्भाव भगवान् महावीर देव के निर्वाण के पश्चात् हुआ था। निह्नवों की क्रिया आदि जिनशासन के अनुसार ही होती है। किन्तु सिद्धान्त के किसी एकदेश को लेकर वे हठाग्राही-मिथ्याभिनिवेशी बन जाते हैं। नोट - इन सात निह्नवों का तथा दिगम्बर मत प्रवर्तक वोटिक नामक आठवें निह्नव का वर्णन विस्तार के साथ विशेषावश्यक भाष्य और हरिभद्रीयाआवश्यक में दिया गया है। इनके मत की उत्पत्ति तथा शंका-समाधान आदि का बहुत ही रोचक वर्णन है, जिसका हिन्दी अनुवाद श्री जैन सिद्धांत बोल संग्रह बीकानेर के दूसरे भाग में बोल नं. ५६१ पृष्ठ ३४२ से ४११ तक में दिया गया हैं। जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिये। प्रतिविरत-अप्रतिविरत अल्पआरंभी...... का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति। तं जहा-अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोइया धम्मपलजणा धम्म-समुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा। ___ भावार्थ - ये जो ग्राम यावत् सन्निवेशों में मनुष्य होते हैं। जैसे-अल्प आरम्भ करने वाले, अल्प परिग्रही, धार्मिक-श्रुत-चारित्र रूप धर्म के धारक, धर्मानुराग-धर्म का अनुसरण करने वाले, धर्मेष्ट धर्म को ही इष्ट मानने वाले, धर्माख्यायी-धर्म का कथन करने वाले, धर्मप्रलोकी-धर्म को ही उपादेय मानने वाले, धर्मप्ररञ्जक-धर्म के रंग में रंगे हुए, धर्मसमुदाचार-धर्म रूप सदाचार वाले, श्रुत और चारित्र धर्म से अविरुद्ध भाव के द्वारा आजीविका का उपार्जन करने वाले, सुशील, सुव्रत-सव्रती और सुप्रत्यानन्द-शुभभाव के सेवन में सदा प्रसन्न चित्त रहने वाले। साहूहिएगच्चाओपाणाइवायाओपडिविरयाजावज्जीवाए, एगच्चाओअपडिविरया। एवंजावपरिग्गहाओ।एगच्चाओ कोहाओमाणाओ मायाओलोहाओपेजाओदोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरइओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जावजीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया। भावार्थ - वे साधुओं के पास में जीवन भर के लिए अंशत: स्थूल प्राणातिपात का त्याग करते हैं, देश से त्याग नहीं करते हैं। इसी प्रकार यावत् स्थूल परिग्रह का परिमाण करते हैं। अंशतः क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति अरति, मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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