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भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना
दोषारोपण, पैशुन्य - किसी के गुप्त दोषों को प्रकट करना, परपरिवाद - निन्दा, अरति रति- अरति मोहनीय के उदय से चित्त - उद्वेग जन्य भाव और मोहनीय से विषयों में होने वाली अभिरति अर्थात् क्लान्तिजन्य आकर्षण और माया - मृषा - कपट सहित झूठ - विश्वासघात । 'मायामृषा' - कपट सहित झूठ बोलना अथवा वेषान्तर और भाषान्तर- करण से जो परवञ्चन किया जाता है वह मायामृषा है। प्राणातिपात शब्द का अर्थ इस प्रकार है -
पन्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः ।
प्राणादशैते भागवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥
अर्थ - शास्त्रों में पांच इन्द्रिय, तीन बल, आयु, श्वासोच्छ्वास इस प्रकार से ये १० प्राण भगवान् ने बतलाये हैं। इनका वियोग करना इसका नाम हिंसा है।
अत्थि पाणाइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे अदिण्णादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे ।
भावार्थ - 'प्राणातिपात विरमण - प्राणघात से वृत्ति हटा लेना, मृषावाद - विरमण - असत्य से . वृत्ति हटा लेना, अदत्तादान विरमण-चोरी से विरत होना, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक - मिथ्या विश्वास रूप कांटे को त्यागना है।
विवेचन - प्राणातिपात से विरमण और क्रोधादि के त्याग की सत्ता का कथन इसलिए है कि'सर्वथा अप्रमाद अशक्य नहीं है, अतः वह स्थिति असंभव नहीं है ' - इस बात के प्रतिपादन के द्वारा इसके मत का निरोध हो ।
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सव्वमत्थि भावं अस्थि-त्ति वयइ । सव्वं णत्थिभावं णत्थि त्ति वयइ ।
• भावार्थ- 'सभी अस्तिभाव (स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से होने वाले भाव) को अस्ति है । यह कहा और सभी नास्तिभाव ( पर द्रव्यादि की अपेक्षा से होने वाले भाव) को 'नास्ति' (नहीं है) - यह कहा । (अथवा तत्त्व का प्रतिपादन, विधानात्मक और निषेधात्मक दोनों शैलियों से किया ।) '
विवेचन - सभी द्रव्यों में अस्ति और नास्ति भाव विद्यमान हैं। अस्ति नास्ति भावों के अविरोधी संयोजन से ही, उनका वस्तुत्त्व कायम रह सकता है । अत: जैन धर्म की दृष्टि सापेक्ष है।
सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति । भावार्थ - ‘सद्-आचरण (तपस्या आदि क्रियाएँ) सुचरितफल (सुचरित के हेतु रूप पुण्यकर्मादि बन्ध रूप फल) वाले होते हैं और बुरे आचरण दुश्चरित (अशुभ) फलवाले होते हैं।'
. फुसइ पुण्णपावे । पच्चायंति जीवा । सफले कल्लाणपावए ।
भावार्थ - 'जीव (सुचरित से इन क्रियाओं से ) पुण्य-पाप बांधते हैं। ( जिससे ) जन्म-मरण करते हैं। (इस कारण कल्याण और पाप (शुभाशुभ कर्म) सफल हैं।'
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