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उववाइय सुत्त
मिच्छादसणसल्लं अकरणिजं जोगं पच्चक्खामो जावजीवाए। सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विहंपि आहारं पच्चक्खामो जावजीवाए। ___ भावार्थ - अब हम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जीवन भर के लिए सम्पूर्ण . प्राणातिपात यावत् सम्पूर्ण परिग्रह, सम्पूर्ण क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य नहीं करने योग्य योग-मन, वचन और काया की क्रिया, अशन-अन्नादि पान-पानी, खाद्य-मेवा आदि और स्वादय-मुखवासादि-इन चार प्रकार के आहार का त्याग करते हैं। ____जं पि य इमं सरीरं उद्रं कंतं पियं मणुण्णं मण्णामं थेजं (पेजं) वेसासियं, संमयं बहुमयं अणुमयं, भण्डकरंडगसमाणं माणं सीयं मा णं उण्हं, माणंखुहा, माणं . पिवासा, मा णं वाला, मा णं चोरा, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइयपित्तियसंणिवाइयं विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु-त्तिकट्ट एयं पिणं चरिमेहिं ऊसासणीसासेहिं वोसिरामि।
भावार्थ - 'यह जो शरीर इष्ट-वल्लभ, कान्त-सुन्दर, प्रिय, मनोज्ञ-मन भावन, मणोम-मनोरम, • प्रेय-प्रीति के योग्य या प्रेज्य-पूजनीय, विश्वसनीय, सम्मत-स्वयं को मान्य, बहुमत-बहुतों का इष्ट
और अनुमत-विगुण देखने पर भी पुनः पुनः मान्य था और जिसे भूषण के करण्डक के समान माना था। कहीं इसे शीत न लग जाय, गर्मी न लग जाय, कहीं यह भूखा न रह जाय, कहीं प्यासा न मर जाय, कहीं इसे सर्प आदि न सतावें, कहीं यह चोरों से पीड़ित न हो जाय, डांस-मच्छर के उपद्रव में न फंस जाय, वात, पित्त और सन्निपातादि विविध रोगों से आतङ्कित न हो जाय और परीषह-क्षुधादि और उपसर्ग-देवादि के कष्ट न सहना पड़े-इस प्रकार सुरक्षा से जिसे रखा है, उसे भी अन्तिम श्वासउच्छ्वास में त्याग दें।'
त्ति कट्ट संलेहणाझूसिया झूसणा भत्तपाण पडियाइक्खिया पाओवगया कालं अणवकंखमाणा विहरंति। तए णं ते परिव्वायगा बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदंति। छेदित्ता आलोइय पडिक्कंता समाहिपत्ता काल मासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णा। तहिं तेसिं गई जाव दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। परलोगस्स आराहगा। सेसं तं चेव।
भावार्थ - इस प्रकार उत्साह पूर्वक अपनी इच्छा से तपस्या से शरीर को कृश (दुर्बल) करते हुए भात-पानी का त्याग करके, वृक्ष की कटी हुई डाली के समान स्थिर अवस्था में रहकर, मरने की इच्छा नहीं करते हुए, काल व्यतीत करने लगे। तब उन परिव्राजकों ने बहुत-से भक्त-भोजनकाल को
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