Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ १६० उववाइय सुत्त भावार्थ - हे गौतम ! स्वाभाविक भद्रता और स्वाभाविक सरलता से यावत् विनीतता से युक्त, निरन्तर षष्ठोपवास-दो-दो दिन के उपवास अर्थात् बेले-बेले की तपस्या रूप तपःकर्म सहित, भुजाएँ ऊँची रख कर और मुख सूर्य की ओर करके आतापना भूमि में आतापना लेने वाले 'अम्बड' परिव्राजक को, शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध होती हुई प्रशस्त लेश्या के द्वारा, किसी समय तदावरणीय-वीर्य लब्धि और वैक्रिय लब्धि के आवरक तथा अवधिज्ञानावरण कर्मों का क्षयोपशम होने . पर जिज्ञासात्मक मति-ईहा, निर्णयात्मक मति-व्यूह, वस्तुगत धर्म के आलोचन-मार्गण और वस्तु में जो धर्म नहीं है उनके आलोचन-गवेषण रूप बुद्धि का व्यापार करते हुए, वीर्यलब्धि और वैक्रिय लब्धि के साथ अवधिज्ञान लब्धि प्राप्त हुई। - विवेचन - लेश्या-मन, वचन और काया की क्रिया में प्रयुक्त पुद्गलद्रव्य और उसके निमित्त से होने वाला आत्मिक असर। अध्यवसाय-भावमन का व्यापार। परिणाम-जीव की परिणति। ज्यों-ज्यों मन, वचन और काया की क्रिया शुभ होती है, त्यों-त्यों उनसे गृहीत पुद्गल द्रव्य भी शुभ और शुद्ध होता जाता है। जिससे अध्यवसाय में शुभता आती है। फिर शुभ अध्यवसायों से जीव की परिणति शुभ होती है और अन्त में शुद्ध दशा में भी स्थिति हो सकती है। प्रायः साधक दशा से साध्य दशा में पहुंचने का यही राजमार्ग प्रतीत होता है। ईहा-यह वही है या अन्य?' इस प्रकार की आलोचनाभिमुख मति। व्यूह'यह वही है'-इस प्रकार का निश्चय । यथा-यह दूँठा है या पुरुष? (ईहा)। यह तो दूंठा ही है-(व्यूह)। . क्योंकि बेलें आदि लिपटी हुई दिखाई दे रही हैं-(मार्गण) और पुरुष के समान शिर आदि भी नहीं हिला रहा है-(गवेषण)। इन सब बातों को करने से अम्बड परिव्राजक को वीर्य लब्धि और वैक्रिय लब्धि के साथ अवधिज्ञान लब्धि प्राप्त हुई। ____तएणं से अम्मडे परिव्वायए ताए वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए ओहिणाणलद्धीए समुप्पण्णाए जणविम्हावणहेउं कंपिल्लपुरे घरसए जाव वसहिं उवेइ। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव वसहिं उवेइ। भावार्थ - तब वह 'अम्बड' परिव्राजक वीर्यलब्धि-विशेष-शक्ति की प्राप्ति, वैक्रियलब्धिअनेक रूप बनाने की शक्ति और अवधिज्ञानलब्धि-रूपी पदार्थों को आत्म प्रदेशों से जानने की शक्ति के प्राप्त होने पर, मनुष्यों को विस्मित करने के लिये 'कंपिल्लपुर' नगर में सौ घरों में आहार करता हैसौ घरों में निवास करता है। इस कारण हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, कि-'अम्बड परिव्राजक सौ घरों में आहार करता है और सौ घरों में निवास करता है।' विवेचन - अम्बड और अम्बड के शिष्यों ने पहले परिव्राजक धर्म को स्वीकार करके परिव्राजक दीक्षा अंगीकार की थी। इसलिए वे परिव्राजक कहलाते थे और परिव्राजकों के वस्त्र गेरुएँ रंग के होने से अम्बड आदि के वस्त्र भी गेरुएँ रंग के थे तथा उपकरण भी त्रिदण्ड, कुण्डीका आदि थे। फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का सम्पर्क होने से उन्होंने जैन धर्म को स्वीकार किया और श्रावक के व्रत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222