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" अम्बड़ परिव्राजक
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अंगीकार किये किन्तु वेश वही परिव्राजक का रखा था इस कारण से अम्बड को और उनके शिष्यों को मूल पाठ में "परिव्राजक" कहा है। वे शुद्ध सम्यक्त्व और निरातिचार श्रावक व्रत पालन करने से परलोक के आराधक हुए हैं।
पहू णं भंते ! अम्मडे परिव्वायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए?-णो इणढे समढ़े।
भावार्थ - हे भन्ते ! अम्बड परिव्राजक देवानुप्रिय के पास में मुंडित होकर गृहवास से निकलकर, अनगार अवस्था को प्राप्त करने के लिए समर्थ है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् अम्बड मेरे पास दीक्षा नहीं लेगा।
गोयमा ! अम्मडे णं परिव्वायए समणोवासए अभिगय-जीवाजीवे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ। णवरं ऊसियफलिहे अदंगुयदुवारे चियत्तंतेउरघर-दार-पवेसी एयं 'ण वुच्चइ।
भावार्थ - किन्तु हे गौतम ! अम्बड परिव्राजक श्रमणोपासक होकर, जीव और अजीव को जानता हुआ यावत् आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करता रहेगा। 'ऊसिय' आदि तीन विशेषण नहीं कहना चाहिए।
विवेचन - 'जाव' शब्द से 'उवलद्धपुण्णपावे आसव' आदि विशेषणों का ग्रहण होता है। जिनका अनुवाद २० वें प्रश्न में आयेगा। ऊसियफलिहे' आदि तीन विशेषण यहाँ नहीं कहने चाहिये, क्योंकि ये परिव्राजक-संन्यासी के वेष में श्रावक बने हैं। इसलिए इनके घर आदि नहीं है। अतएव ये तीन विशेषण इनके लिए नहीं कहने चाहिए।
-- अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जावजीवाए जाव परिग्गहे, णवरं सव्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावजीवाए।
.. भावार्थ - अम्बड के स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद अदत्तादान तथा सर्व मैथुन और स्थूल परिग्रह के जीवन भर के लिए प्रत्याख्यान हैं।
अम्मडस्स णं णो कप्पइ अक्खसोयप्यमाणमेत्तं पि जलं सयराहं उत्तरित्तए। णण्णत्थ अद्धाण-गमणेणं।
'भावार्थ - अम्बड को मार्ग गमन के सिवाय, गाड़ी की धुरा डूबने जितने जल में भी अकस्मात् उतरना नहीं कल्पता है। ___ अम्मडस्स णं णो कप्पइ सगडं एवं चेव भाणियव्वं जाव णण्णत्थ एगाए गंगामट्टियाए।
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