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अम्बड़ परिव्राजक
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काउं, णो चेवणं अणवजे। से वि य जीवा त्ति कट्ट, णो चेव णं अजीवा। से वि य दिण्णे, णो चेव णं अदिण्णे। से वि य दंतहत्थपायचरुचमसपक्खालण-द्वयाए पिबित्तए वा, णो चेव णं सिणाइत्तए। ..
भावार्थ - बहता हुआ जल, किन्तु बन्धा हुआ नहीं, छना हुआ जल, किन्तु अनछना नहीं, वह सावध जल है, किन्तु निरवद्य नहीं है, सजीव है किन्तु अजीव नहीं है, दत्त जल किन्तु अदत्त नहीं-ऐसा मगध का आधा आढक जल, हाथ-पैर, दांत, चरु, चमस धोने के लिए और पीने के लिये, किन्तु स्नान के लिये नहीं-अम्बड के लेने का कल्प है। अर्थात् हाथ आदि धोने के लिए और पीने के लिए बहते हुए प्रवाह से, सावद्य और सजीव से छानकर दिया हुआ जल मगध के आधे आढक जितना लेने का, अम्बड के कल्प है।
विवेचन - 'यह जो जल का परिमाण करण है वह जल सावध है-सजीव है'-ऐसा करके परिमाण करना अथवा छना हुआ जल किस कारण से ग्रहण करते हैं ? जल सावध है, उसमें पूतरकादि जीव हैं-ऐसा सोचकर। यह भाव है। ___ अर्थात् अम्बड़ ने यह प्रतिज्ञा नहीं की थी, कि-"मैं सावध और सजीव जल ही काम में लूंगा।' क्योंकि ऐसी प्रतिज्ञा सुप्रत्याख्यान में नहीं गिनी जा सकती। अत: इन प्रतिज्ञागत वाक्यों का यह आशय है, कि - 'जिस जल का मैं उपयोग करता हूँ, वह जल सावध और सजीव है, किन्तु निरवद्य और निर्जीव नहीं है'-ऐसा विचार करके, जल की मर्यादा की, अथवा जल को छानकर उपयोग में लेने का
नियम लिया। 'त्ति काउं' और 'त्ति कट्ट' शब्दों से भी यही ध्वनि निकलती है। ... अम्बड परिव्राजक ने परिव्राजक अवस्था में इस प्रकार पानी की मर्यादा की थी सो श्रावकपने में भी पूर्व-प्रतिज्ञा को ही कायम रखा था। वह उस जल को सचित्त समझता था यह उसकी श्रद्धा थी, किन्तु इससे उसके श्रावकपने में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती थी, क्योंकि श्रावक सर्व सचित्त का सर्वथा त्यागी नहीं होता है। to अम्मडस्स कप्पइ मागहए आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए। से वि य वहमाणे जाव "दिण्णे णो चेव णं अदिण्णे। से वि य सिणाइत्तए, णो चेव णं हत्थपायचरुचमससक्खालणट्ठयाए पिबित्तए वा।
भावार्थ - अम्बड के मागध एक आढक जल लेने का कल्प है। वह भी बहता हुआ....जाव द्वित....स्नान के लिये, किन्तु हाथ, पैर......आदि धोने और पीने के लिए नहीं।
अम्मडस्स णो कप्पइ अण्णउत्थिया वा, अण्णउत्थियदेवयाणि वा, मण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाइं वंदित्तए वा णमंसित्तए वा जाव पज्जुवासित्तए जाणण्णत्थ अरिहंते वा. अरिहंतचेइयाइं वा।
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