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उववाइय सुत्त
भावार्थ - तब वे परिव्राजक पानी के समाप्त हो जाने से, प्यास के बढ़ने से और जल-दाता के दिखाई नहीं देने से, एक दूसरे को पुकारने लगे अथवा परस्पर बातें करने लगे।
सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं, से उदए जाव झीणे तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामीए जाव अडवीए उदगदातारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए।
भावार्थ - पुकार कर इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय ! इस ग्राम रहित अटवी के किसी भाग में हम आ पड़े हैं। जल खत्म है। अतः हे देवानुप्रियो ! इसी में भला है कि हम इस ग्राम रहित अटवी में एक साथ चारों ओर जलदाता की खोज करे।'
त्तिकदृ अण्णमण्णस्स अंतिए एयमटुं पडिसुणंति। पडिसुणित्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदग-दातारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेंति।
भावार्थ - इस प्रकार एक-दूसरे के पास से यह बात सुनने लगे। सुनकर वे उस ग्राम रहित अटवी में चारों ओर एक साथ जलदाता की खोज करने लगे।
करित्ता उदगदातारमलभमाणा दोच्चंपि अण्ण-मण्णं सद्दावेंति। सद्दावेत्ता एवं वयासी
भावार्थ - उदकदाता के नहीं मिलने पर, पुनरपि अन्योन्य बातें करने लगे। इस प्रकार बोले -
इह णं देवाणुप्पिया ! उदगदातारो णत्थि। तं णो खलु कप्पइ अम्हं अदिण्णं गिण्हित्तए। अदिण्णं साइजित्तए। तं मा णं अम्हे इयाणिं आवइकालंमि अदिण्णं गिण्हामो-अदिण्णं साइजामो।मा णं अम्हं वयलोवे भविस्सइ।
भावार्थ - 'देवानुप्रियो ! यहाँ उदकदाता नहीं है। अदत्त ग्रहण करने का हमारा कल्प नहीं है और न अदत्त भोगने का ही। तो हम इस आपत्तिकाल में भी अदत्त ग्रहण नहीं करें-नहीं भोगें, तो हमारे व्रत का लोप नहीं होगा। ___ तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! तिदंडए कुंडियाओ य कंचणियाओ य करोडियाओ य भिसियाओ य छण्णालए य अंकुसए य केसरियाओ य पवित्तए य गणेत्तियाओ य छत्तए य वाहणाओ य पाउयाओ य धाउरत्ताओ य एगंते एडित्ता, गंगं महाणइं ओगाहित्ता, वालुयासंथारए संथरित्ता, संलेहणाझोसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खियाणं पाओवगयाणं कालं अणवकंख-माणाणं विहरित्तए। __ भावार्थ - 'तब हे देवानुप्रियो ! यही अच्छा है कि-हम त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्ष की मालाएँ, करोटिका-मिट्टी का पात्र विशेष, वृषिका-बैठने की पट्टडी, षण्णालक (त्रिकाष्ठिका), अंकुशक
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