Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 164
________________ अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ शिष्य १५५ तेसि णं परिव्वायगाणं कप्पइ मागहए अद्धाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए। से वि य वहमाणे, णो चेव णं अवहमाणे। जाव णो चेव णं अदिण्णे। से वि य हत्थपायचरुचमस-पक्खालणट्ठाए, णो चेव णं पिबित्तए सिणाइत्तए वा। भावार्थ - उन परिव्राजकों के आधा मागध आढक जल लेने का कल्प है। वह भी बहता हुआ, बंधा हुआ नहीं। यावत् अदत्त नहीं। हाथ, पैर, चरु, चमस को धोने के लिए, पीने और स्नान के लिए नहीं। ते णं परिव्वायगा एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउणंति। पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई जाव दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जाव सेसं तं चेव॥१२॥ . भावार्थ - वे परिव्राजक इस तरह की चर्या करते हुए, बहुत वर्षों तक उस अवस्था को धारण करते हैं। फिर काल के समय में काल करके, ब्रह्मलोक कल्प-पांचवें स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी दस सागरोपम की स्थिति है। शेष उसी प्रकार। अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ शिष्य ३९- तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसयाई गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासंसि गंगाए महाणईए उभओकूलेणं कंपिल्लपुराओ णयराओ पुरिमतालं णयरं संपट्ठिया विहाराए। ... भावार्थ - उस काल उस समय 'अम्बड़' परिव्राजक के सात सौ अन्तेवासी-शिष्य ग्रीष्मकाल के • ज्येष्ठा-मूल अर्थात् ज्येष्ठ मास में गंगा महानदी के दो किनारों से 'कपिल्लपुर' नगर से पुरिमताल नगर को जाने के लिए रवाना हुए। तए णं तेसिं परिव्वायगाणं तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसंतर-मणुपत्ताणं, से पुव्वग्गहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुंजमाणे झीणे। भावार्थ - तब वे परिव्राजक उस ग्राम से रहित और सार्थ गोकुलादि के मिलन से रहित, लम्बे मार्गवाली अटवी के किसी भाग में पहुँच गये। पहले ग्रहण किया हुआ पानी बार-बार पीने से समाप्त हो गया। तए णं ते परिव्वायगा झीणोदगा समाणा तण्हाए. पारब्भमाणा-पारब्धमाणा उदगदातारमपस्समाणा अण्णमण्णं सद्दावेंति। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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