________________
१५२
उववाइय सुत्त
भावार्थ - जो हमें किञ्चित् भी अशुचि होती है तो उसे जल और मिट्टी से धोकर पवित्र हो जाते हैं।
एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा, सुई सुइ-समायारा भवेत्ता, अभिसेयजलपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गमिस्सामो।
भावार्थ - 'इस प्रकार हम स्वच्छ-विमल देह और वेशवाले और स्वच्छ-विमल आचार वालेशुचि पवित्र और शुचि आचार वाले होकर, जलद्वारा अभिषेक-स्नान से पवित्र आत्मा बनकर निर्विघ्न स्वर्ग में जायेंगे।'
तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-अगडं वा तलायं वा णई वा वावं वा पुक्खरिणिं वा दीहियं वा गुंजालियं वा सरं वा सरसिं वा सागरं वा ओगाहित्तए। णण्णत्थ अद्धाणगमणे।
भावार्थ - उन परिव्राजकों का मार्ग में गमन के सिवाय, कूप, तालाब, नदी, बावडी, पुष्करिणी-कमलों से भरा हुआ गोलघाटबन्ध जलाशय, दीर्घिका-सारणी, गुञ्जालिका-एक तरह की बावड़ी-वक्रसारणी, सरोवर, महासरोवर और सागर में प्रवेश करने का कल्प नहीं है।
णो कप्पइ सगडं वा जाव संदमाणियं वा दूरुहित्ता णं गच्छित्तए। भावार्थ - कल्प-आचार नहीं है-गाड़ी यावत् डोली में चढ़कर चलने का कल्प (आचार) नहीं
तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-आसं वा हत्थिं वा उट्टे वा गोणिं वा महिसं वा खरं वा दूरुहित्ता णं गमित्तए।
भावार्थ - उन परिव्राजकों का कल्प नहीं है-घोड़े, हाथी, ऊँट, बैल, भैंस और गधे पर सवार होकर चलने का।
तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-णडपेच्छा इ वा जाव मागहपेच्छा इ वा पिच्छित्तए।
भावार्थ - उन परिव्राजकों का कल्प नहीं है, नटप्रेक्षा-नट के अभिनय यावत् मागधप्रेक्षा देखने का।
तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-हरियाणं लेसणया वा घट्टणया वा थंभणया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए।
भावार्थ - उन परिव्राजकों का कल्प नहीं हैं-वनस्पति को परस्पर मिलाने या मसलने, इकट्ठी करने, ऊँची करने और उखाड़ने का।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org