Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 160
________________ परिव्राजकों का उपपात भावार्थ - उन परिव्राजकों में ये आठ जाति के ब्राह्मण परिव्राजक होते हैं । यथा - १. कृष्ण २. करकण्ड ३. अम्बड ४. पाराशर ५. कृष्ण ६. द्वीपायन ७. देवगुप्त और ८. नारद । तत्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिव्वायगा भवंति । तं जहा सीलई ससिहारे य, णग्गई भग्गई ति य । विदेहे रायाराया, रायारामे बलेति य ॥ भावार्थ - उनमें ये आठ क्षत्रिय परिव्राजक होते हैं। यथा - १. सीलई - शीलजित २. ससिहारशशिधर ३. नग्गई ४. भग्गई ५. विदेह ६. रायाराय ७. रायाराम और ८ बल । विवेचन इन सोलह जाति के परिव्राजकों का वर्णन कहीं देखने में नहीं आया। टीकाकार ने भी 'लोकतोऽवसेयाः' कहकर, व्याख्या नहीं की है। अर्थात् लोगों से अथवा अन्य ग्रन्थों से इनका स्वरूप जान लेना चाहिए । ते णं परिव्वायगा रिउव्वेय - जजुव्वेय- सामवेय- अहव्वणवेय इतिहासपंचमाणं णिग्घंदुछट्टाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेयाणं सारगा पारगा धारगा वारगा । भावार्थ - वे परिव्राजक ऋजुः, यजुः साम, अथर्वण, पांचवां इतिहास - पुराण और छट्ठे निघण्टु नाम कोश रूप अंगोपांग और रहस्य सहित चारों वेदों के सारग-अध्यापन के द्वारा प्रवर्तक या दूसरों को याद करवाने के कारण स्मारक, पारग-अन्त तक पहुँचने वाले और धारग-धारण करने में समर्थ थे। वारग-अशुद्ध उच्चारण तथा परिव्राजक के नियमों के विरुद्ध आचरण करने वालों के वारक अर्थात् रोकने वाले 1 सडंगवी सद्वितंतविसारया संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे णिरूत्ते जोतिसामयणे अ य बहू बंभणएसु परिव्वाएसु य सत्थेसु सुपरिणिट्टिया यावि हुत्था । भावार्थ - शिक्षा - अक्षर-स्वरूप निरूपकशास्त्र, कल्प- तथाविध आचार निरूपक शास्त्र, व्याकरण, छन्द, निरुक्त - शब्दों की निरुक्ति प्रतिपादक शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र इन वेदों के छह अंगों के ज्ञाता षडंगविद्, षष्ठितंत्र- कापिलीय तंत्र के पण्डित और गणित संखाण तथा और भी वेद के व्याख्यान रूप ब्राह्मण सम्बन्धी शास्त्रों में पूर्ण रूप से निष्णात थे। ते णं परिव्वायगा दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणा पण्णवेमाणा परूवेमाणा विहरंति । भावार्थ- वे परिव्राजक दानधर्म, शौचधर्म - स्वच्छता रूप धर्म और तीर्थाभिषेक - तीर्थस्नान का कथन करते हुए समझाते हुए प्रतिपादन करते हुए विचरते थे । अम्हे किंचि असुई भवइ, तण्णं उदएण य मट्टियाए य पक्खालियं सुई भवइ । Jain Education International १५१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222