Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 158
________________ प्रव्रजित श्रमण कान्दर्पिक आदि का उपपात १४९ पत्ताहारा पुष्फाहारा बीयाहारा परीसडियकंद-मूल-तय-पत्त-पुप्फ-फलाहारा जलाभिसेयकढिणगायभूया। भावार्थ - मात्र जलभक्षक, वायुभक्षक, शैवाल (काँई पानी के ऊपर आने वाला मैल)भक्षक, मूलाहारी, कंदाहारी, त्वक् (छाल) आहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, बीजाहारी, सडे हुए या गिरे हुए या किसी के द्वारा छोड़े गये कंद, मूल, छाल, पत्र, फूल और फल का आहार करने वाले, बिना स्नान किये भोजन नहीं करने वाले, या स्नान के कारण सफेद बनी हुई देहवाले। आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंडुसोल्लियंपिव कट्ठसोल्लियंपिव अप्पाणं करेमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउणंति। बहूइं वासाइं परियायं पाउणित्ता, कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं जोइसिएसु देवेसुदेवत्ताए उववत्तारो भवंति जाव पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई जाव आराहगा?-णो इणढे समटे॥१०॥ . भावार्थ - और पञ्चाग्नि की आतापना के द्वारा अपने आपको अंगारों से पका हुआ-सा, भाड़ में भुना हुआ-सा यावत् करते हुए, बहुत वर्षों तक उस अवस्था को पाकर के, काल के समय में काल करके उत्कृष्ट रूप से ज्योतिषी देवों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। यावत् पल्योपम और एक लाख वर्ष अधिक की स्थिति यावत् ये परलोक के आराधक नहीं हैं। - प्रव्रजित श्रमण कान्दर्पिक आदि का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेस पव्वइया समणा भवंति।तं जहा-कंदप्पिया कुक्कुइया मोहरिया गीयरइप्पिया णच्चणसीला। ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियायं पाउणंति। __ भावार्थ - ये जो ग्राम आकर यावत् सन्निवेशों में प्रव्रजित श्रमण (निर्ग्रन्थ) होते हैं। जैसे-हासपरिहास करने वाले (कान्दर्पिक), भांड के समान चेष्टा को करते हुए स्वयं हँसकर दूसरों को हँसाने बाले (कौकुचिक) उटपटांग वृथा बोलने वाले (मौखरिक) गीत के साथ रमणक्रीड़ा जिसे प्रिय हो या गीतरति वाले लोग जिसे प्रिय हों ऐसे श्रमण (गीतरतिप्रिय) और अस्थिर शीलाचार वाले या नर्तनशील। वे ऐसी चर्या से काल व्यतीत करते हुए, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय को पालते हैं। बहूइं वासाइं सामण्ण परियायं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअप्पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिए देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई जाव सेसं तं चेव। णवरं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई॥११॥. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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