Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 156
________________ द्वि द्रव्य भोजी आदि का उपपात १४७ भावार्थ - ये जो मनुष्य ग्राम यावत् सन्निवेशों में होते हैं। जैसे-उदकद्वितीय-ओदन द्रव्य की अपेक्षा से दूसरा द्रव्य जल अर्थात् एक भात और दूसरा जल ऐसे दो द्रव्य के भोजी, उदकतृतीय-ओदन आदि दो द्रव्य और तीसरा जल के भोजी, उदकसप्तम-ओदन भात आदि छह द्रव्य और सातवें जल के भोजी, उदक एकादश-भात आदि दस द्रव्य और ग्यारहवें जल के भोजी। गोयमा गोव्वइया गिहिधम्मा धम्मचिंतका अविरुद्ध-विरुद्धवुड्डसावकप्पभियओ। भावार्थ - यहाँ गौतम शब्द का अर्थ है बैल से आजीविका करने वाले, बैल को आगे करके जनता को उसकी क्रीडा दिखाकर उससे अन्न आदि की याचना कर अपना जीवन निर्वाह करने वाले, गौव्रतिक-गाय से सम्बन्धित व्रत वाले, गृहधर्मी, धर्मचिन्तक- धर्मशास्त्र पाठक, अविरुद्धवैनयिकभक्तिमार्गी, विरुद्ध-अक्रियावादी वृद्धश्रावक-ब्राह्मण अथवा वृद्ध-तापस और श्रावक-ब्राह्मण आदि। विवेचन - पैरों में पड़ने आदि विचित्र शिक्षा से शिक्षित और जनता के चित्त को अपनी तरफ आकर्षित करने में चतुर छोटे बैल के द्वारा विचित्र खेल दिखाकर अपनी आजीविका करने वाले को यहाँ पर 'गौतम' कहा है। गाय के सम्बन्धित व्रत के करने वाले को 'गोव्रतिक' कहते हैं। वे गायों के ग्राम के बाहर निकलने पर बाहर निकलते हैं, चरने पर चरते हैं, पानी पीने पर पीते हैं, जब वह गाय घर आती है, तब वे भी घर आते हैं और सोने पर सोते हैं। कहा है - . गावीहिं समं निग्गम-पवेस-सयणासणाइ पकरेंति। भुंजंति जहा गावी, तिरिक्खवासं विहाविंता॥ ... - गृहस्थ धर्म ही श्रेष्ठ है-ऐसा विचार करके देव, अतिथि आदि के लिये दानादि रूप गृहस्थ धर्म का अनुगमन करने वाले को 'गृहिधर्मा' कहते हैं। अविरुद्ध-वैनयिक-देवादि का विनय करने वाला कहा हैअविरुद्ध विणयकरो, देवाईणं पराए भत्तीए। जह वेसियायणसुओ, एवं अण्णेऽविणायव्वा॥ - वृद्ध अर्थात् तापस। वृद्धकाल-पुरातन काल में दीक्षा लेने के कारण और आदिदेव के काल में सकल लिंगियों में पहले उत्पन्न होने के कारण तापसों को 'वृद्ध' कहा गया है। - धर्मशास्त्र को श्रवण करने के कारण ब्राह्मणों को श्रावक कहा गया है अथवा वृद्ध शब्द को श्रावक का विशेषण मान लिया जाय तो भी 'वुड्डसावय' पुराने श्रावक का अर्थ ब्राह्मण ही होगा। तेसिं मणुयाणं णो कप्पइ इमाओणव रसविगइओ आहारित्तए।तं जहा-खीरं दहिं णवणीयं सप्पिं तेल्लं फाणियं महुं मजं मंसं।णण्णत्थ एक्काए सरिसवविगहए। तेणं मणुया अप्पिच्छा तं चेव सव्वं । णवरं चउरासीइ वाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता ॥९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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