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सभा-विसर्जन
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सभा-विसर्जन ३५- तए णं सा महइमहालिया महच्चपरिसा मणुस्सपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा-णिसम्म हट्ठतुटु जाव हियया उट्ठाए उठे।
भावार्थ - तब वह विशाल मनुष्य-सभा, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप धर्म को सुनकर-हृदय में धारण कर, हर्षित, संतुष्ट.....यावत् विकसित हृदय हुई और उत्थान पुरुषार्थ के द्वारा उठकर खड़ी हुई। - उट्ठाए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करेत्ता वंदइ णमंसड़।
भावार्थ - उत्थान से उठ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके वन्दना की और नमस्कार किया।
वंदित्ता णमंसित्ता अत्यंगइया मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा। - भावार्थ - कई श्रोता मुण्डित होकर गृहवास से निकल कर अनगार अवस्था में आये और कइयों ने पांच अणुव्रत और सात शिक्षा व्रत रूप बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया। _ विवेचन - तीन गुणव्रत को भी शिक्षाव्रत में गिन लेने के ये कारण हो सकते हैं-कथन-संक्षेप, दोनों का उत्तरगुण होना, नियम रूप होना, अभ्यास रूप होना आदि। __अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ। वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी
भावार्थ - शेष परिषदा ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदना की-नमस्कार किया। फिर इस प्रकार बोली- सुयक्खाए ते भंते !णिग्गंथे पावयणे।एवं सुपण्णत्ते सुभासिए सुविणीए सुभाविए अणुत्तरे ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे।
भावार्थ - हे भंते (हे पूज्य) ! आपने निर्ग्रन्थ-प्रवचन सुन्दर रूप से कहा। इसी प्रकार सुप्रज्ञप्त-विशेषता युक्त उत्तम रीति से कहा हुआ, सुभाषित-सुन्दर भाषा से कहा हुआ, सुविनीतशिष्यों में उत्तम विनियोजित, सुभावित-तत्त्व कथन उत्तम भाव युक्त बना हुआ और अनुत्तर-सर्वोत्तम है। भंते ! जड़-चेतन की ग्रन्थियों का मोचक आपका उपदेश है।
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