Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 146
________________ औपपातिक पृच्छा १३७ जानु-ऊँचे घुटने और अधोशिर-नीचे मुख रखकर अर्थात् उत्कुटुकासन से बैठकर, ध्यान रूपी कोष्ठकोठे में प्रवेश करके, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचर रहे थे। विवेचन - उत्कृष्ट तपस्या करने के कारण गौतम स्वामी को ऐसी विशिष्ट तेजोलेश्या प्राप्त हो गई थी। जिसकी इतनी शक्ति होती है कि अनेक योजन प्रमाण क्षेत्र में रही हुई समस्त वस्तुओं को वह क्षण मात्र में भस्म कर डालती है। किन्तु ऐसी विस्तृत और विपुल लेश्या को भी इन्होंने अपने शरीर के भीतर ही अन्तर्हित (छिपा) कर रखी थी। उसका उपयोग नहीं करते थे। ___ध्यान रूपी कोठे में विराजमान थे यहाँ ध्यान को जो कोठे की उपमा दी है। उसका कारण यह है कि-जिस प्रकार कोठे में रहा हुआ गेहूँ, जौ, आदि धान्य इधर-उधर नहीं बिखरता है उसी प्रकार ध्यान में बैठे हुए की, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण की वृत्तियाँ बाहर इधर उधर नहीं हो सकती हैं, मानसिक प्रत्येक वृत्तियाँ इस अवस्था में सम्पूर्ण नियन्त्रित हो जाती हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के सबसे बड़े शिष्य का नाम इन्द्रभूति था और उनका गोत्र गौतम था। परन्तु वे अपने गोत्र के कारण ही इस नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। भगवान् महावीर स्वामी भी उनको 'गोयम' (गौतम) इसी नाम से पुकारते थे। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के द्रुम पत्रक नामक दसवें अध्ययन में ३७ गाथाओं में से ३६ गाथाओं में गोयम शब्द का ही प्रयोग हआ है, तथा भगवती सूत्र के प्रश्नोत्तरों में तथा अन्य अनेक जगहों में 'हे गोयमा' इस शब्द का प्रयोग हुआ है। .. ___तएणं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोऊहल्ले, उप्पण्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उप्पण्ण-कोऊहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोऊहल्ले, समुप्पण्णसड्डे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊहल्ले उठाए उढेइ। उट्ठाए उछित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करेत्ता वंदइ। णमंसइ। वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउड़े पजुवासमाणे एवं वयासी भावार्थ - तब भगवान् गौतम स्वामी के मन में श्रद्धा पूर्वक इच्छा उत्पन्न संशय अनिर्धारित अर्थ में शंका, जिज्ञासा एवं कुतूहल उत्पन्न हुआ, फिर उनके मन में विशेष श्रद्धा, संशय और कुतूहल समुत्पन्न हुआ। वे अपने स्थान से उठे। उठकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे। वहाँ आये आकर भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके भगवान् के न अधिक नजदीक और न अधिक दूर सुश्रूषा-सुनने की इच्छा करते हुये, प्रणाम करते हुए सामने विनय पूर्वक हाथ जोड़े हुए उनकी पर्युपासना-अभ्यर्थना करते हुए इस प्रकार बोले- । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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