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उववाइय सुत्त
विवेचन - गौतम स्वामी के मन में तत्त्व का निर्णय करने के लिए इच्छा उत्पन्न हुई, कारण कि इन्हें इस प्रकार का संशय उत्पन्न हुआ कि यह औपपातिक सूत्र आचारांग सूत्र का उपांग है। आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में जो आत्मा का उपपात कहा है, सो किस प्रकार से कहा है। अत: भगवान् मेरे संशय युक्त प्रश्न का उत्तर न मालूम किस तरह से देंगे। इस बात को जानने के लिए कुतूहल (उत्कंठा) उत्पन्न हुआ। क्योंकि भगवान् के ऊपर ही उनके चित्त में अतिशय श्रद्धा थी। इसलिए उनसे ही निर्णय करने के लिए श्रद्धा उत्पन्न हुई।
___ 'उत्पन्न संशय, उत्पन्न कौतुहल' इत्यादि पदों द्वारा वाचार्थ में, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा की तरह उत्तरोत्तर रूप से (आगे-आगे) से विशेषता बतलाने के लिए सूत्रकार ने 'जात, उत्पन्न, संजात, समुत्पन्न' इन पदों का प्रयोग किया है।
कर्म बन्धन जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंत-दंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते पावकम्मं अण्हाइ? - हंता अण्हाइ॥१॥
भावार्थ - हे भन्ते (भगवन्) ! जिसने संयम नहीं साधा, प्राणातिपातादि से निवृत्ति नहीं कीअविरत, वास्तविक श्रद्धान के द्वारा पाप कर्मों को हलके नहीं किये-अप्रतिहत, सर्वविरति-सम्पूर्ण त्योग वृत्ति से आते हुए पाप कर्मों को नहीं रोके, जो कायिकी आदि क्रिया से युक्त हैं, जिसने इन्द्रियों का निरोध नहीं किया, जो स्व-पर को सर्वथा पापकर्म से दण्डित करता है, सर्वथा मिथ्यादृष्टि है, मिथ्यात्व निद्रा से बिलकुल सुप्त है, वह जीव पापकर्म से लिप्त होता है क्या ? - हाँ होता है।
विवेचन - किसी मत की मान्यता है कि-जब जीव भोगयोनि में होता है तब वहाँ परवशता के कारण कर्मबन्ध नहीं करता है, किन्तु केवल पापकर्मों को भोगता ही है। कुछ ऐसे ही भाव से उत्पन्न हुई यह जिज्ञासा, इस प्रश्न के मूल में प्रतीत होती है कि-'क्या कर्मबन्ध के सभी कारणों के विद्यमान् रहते हुए, जीव अबन्धक हो सकता है ? यदि ऐसा होता हो तो संयतादि अवस्था मुक्ति के लिये अनावश्यक है ? एक न एक दिन सम्पूर्ण कर्मों को भोग लने के बाद जीव अनायास ही जन्म-मरण से मुक्त हो जायगा।' यह शङ्का भगवान् के उत्तर से निर्मूल हो जाती है। असंयत आदि विशेषणों से युक्त जीव का, एक क्षण के लिए भी कर्म-बन्ध नहीं रुकता है।
अविरत-विरति रहित। किस कारण असंयत है ? - क्योंकि अविरत है-विरति से रहित है।
अथवा निन्दा द्वारा अतीतकालकृत पापों को प्रतिहत करना और अनागतकालभावी पापों को निवृत्ति से प्रत्याख्यात करना अर्थात् जिसने ऐसा किया हो वह प्रतिहत-प्रत्याख्यात है और जिसने ऐसा नहीं किया हो वह 'अप्रतिहत-प्रत्याख्यात पापकर्मा' है।
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