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उववाइय सुत्त
अशुभ रूप में बन्ध होता है अथवा मोहनीय कर्म का वेदन ही अघातिया कर्मों में शुभता-अशुभता का निमित्त बनता है। अघातिया कर्म ही भवं पनाही कर्म है। इन भवोपग्राही कर्मों में से भी, मुक्त होने से कुछ क्षणों के पहले तक वेदनीय कर्म का ही बन्ध होता है। जिस भव में मोहनीय कर्म का क्षय होता है, उसी भव में वेदनीय कर्म भी क्षीण हो जाता है। अतः भव-परम्परा की वृद्धि में इस कर्मयुगल का बहुत बड़ा हाथ है। यही कारण है कि उपपात सम्बन्धी प्रश्नों की उत्थानिका के रूप में, अन्य कर्मों की वेदना और बन्ध के विषय में प्रश्न न करते हुए, इन्हीं के विषय में प्रश्न किया गया है।
असंयत यावत् एकान्त सुप्त का उपपात जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहय-पच्च-क्खाय पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते ओसण्णतसपाणघाई। कालमासे कालं . किच्चा णिरइएसु उववजइ ? - हंता उववज्जइ॥४॥
_भावार्थ - हे भन्ते ! जिसने संयम का पालन नहीं किया यावत् जो एकान्त सुप्त है और जो बहुलता से त्रस प्राणियों का घातक है, वह जीव काल के समय में काल करके क्या नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? - हाँ, होता है। ___ जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहय-पच्चक्खाय पावकम्मे इओ चुए पेच्चा देवे सिया ? - गोयमा ! अत्थेगइया देवे सिया। अत्थेगइया णो देवे सिया।
भावार्थ - हे भन्ते ! जिसने संयम नहीं पाला यावत् जिसने पापों से निवृत्ति नहीं की, वास्तविक श्रद्धान के द्वारा पापकर्म को हलके नहीं किये और सर्वविरति से आते हुए पापकर्मों को नहीं रोके, वे जीव यहाँ से मरकर, दूसरे जन्म में क्या देव हो सकते हैं? . हे गौतम ! कोई देव होते हैं, कोई देव नहीं होते।
सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया देवे सिआ, अत्थेगइया णो देवे सिआ ?गोयमा!जेइमे जीवागामागर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभ-चेरवासेणं अकामअण्हाणगसीयायवदंसमसगसेयजल्लमल्लपंक- परितावेणं अप्पतरोवाभुजतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति।अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गइ, तहिं तेसिं ठिइ, तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते।
कठिन शब्दार्थ - ग्राम - जहाँ अठारह प्रकार का कर लिया जाता है अथवा जहाँ रहने वालों
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