Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 153
________________ १४४ उववाइय सुत्त भावार्थ - दावाग्नि से जले हुए, कीचड़ में डूबे हुए, कीचड़ में फंसे हुए, संयम से भ्रष्ट बनकर या भूख आदि परीषहों से घबराकर मरे हुए, विषय-सेवन में परतंत्र होने से पीड़ित होकर मरे हुए या हरिण के समान शब्दादि विषयों में लीन बनकर मरे हुए, निदान करके मरे हुए, बाल तपस्वी आदि, भावशल्य को या मध्यवर्ती भल्लि आदि शल्य को निकाले बिना ही मरे हुए, पर्वत से गिरकर या महापाषाण के गिरने से मरे हुए, वृक्ष से गिरकर या वृक्ष के गिरने से मरे हुए निर्जल प्रदेश में जा पड़ने वाले, पर्वत से झंपापात करके मरने वाले, वृक्षों से झंपापात करके मरने वाले, मरुभूमि की रेती में गिर कर मरने वाले। . जलपवेसिगा जलणपवेसिगा विसभक्खियगा सत्थोवाडियगा वेहाणसिया गिद्धपिट्ठगा कंतारमयगा दुभिक्खमयगा। भावार्थ - जल में प्रवेश करके मरने वाले, अग्नि में प्रवेश करने वाले, विष भक्षण करने वाले, शस्त्र से अपने आपको विदारने वाले, गले में फाँसी लगा कर या तरुशाखादि आकाश में उछल कर मरने वाले, किसी के मरे हुए कलेवर में प्रवेश करके गृद्ध पक्षियों की चोंचों से मरने वाले, जंगल में और दुर्भिक्ष में मरने वाले। - असंकिलिट्ठपरिणामातेकालमासेकालंकिच्चाअण्णयरेसुवाणमंतरेसुदेवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गइ, तहिं तेसिं ठिइ, तर्हि तेसिं उववाए पण्णत्ते। भावार्थ - यदि ये व्यक्ति संक्लिष्ट परिणाम–महा आर्त-रौद्र ध्यान वाले न हों तो काल के समय काल करके, वाणव्यंतर के देवलोक में से किसी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनकी गति, स्थिति और उत्पत्ति कही गई है। तेसिणं भंते ! देवाणं केवइयंकालं ठिइ पण्णत्ता ? - गोयमा ! बास्सवाससहस्साइं ठिइ पण्णत्ता। भावार्थ- हे भन्ते ! वहाँ उनकी कितनी स्थिति होती है ?- हे गौतम ! बारह हजार वर्ष की...। अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इड्डी वा जुई वा जसे इ वा बले इवा वीरिए इवा पुरिसक्कारपरिक्कमे इ वा ?-हंता अत्थि।ते णं भंते ! देवा परलोगस्साराहगा ? - णो इणढे समढे ॥६॥ भावार्थ- हे भन्ते! उन देवों के ऋद्धि यावत् पराक्रम है? - हाँ है। हे भन्ते ! वे देव, परलोक के आराधक हैं ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वे परलोक के आराधक नहीं है। विवेचन - उपरोक्त जीवों के देवों में उत्पन्न होने का कारण यह है कि वे परवश होकर कष्ट सहन करते हैं, उस अकाम कष्ट सहन करने से वे वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होते हैं। उनमें भी हलकी जाति के देव और अल्प रिद्धि और अल्प आयुष्य वाले देव होते हैं। क्योंकि वाणव्यतरों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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