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उववाइय सुत्त
वाणव्यन्तर देवलोक में से किसी देवलोक में, देव रूप से उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनका जाना, स्थित रहना और देव रूप से होना कहा गया है।
विवेचन - वेदनीय कर्म की तीव्र वेदना के कारण मोहनीय कर्म का वेदन मंद हो जाता है। जिससे देवायु का बन्ध होता है। यथा
इत्थ वि समोहया मूढचेयणा वेयणाणुभवखिण्णा। तंमित्तचित्तकिरिया ण संकिलिस्संति अण्णत्थ॥१५७॥
- तिर्यग् लोक में भी वेदनीय समुद्घात को प्राप्त हुए जीव, मूढ चेतना वाले और वेदनानुभव से खिन्न हो जाते हैं। अतः चित्त वेदना में ही लीन हो जाता है। अन्यत्र रागादि परिणाम को प्राप्त नहीं होता है।
ता तिव्व राग दोसाभावे, बंधो वि पयणुओ तेसिं। सम्मोहओचिय तहा खओ विणेगंतमुक्कोसो ॥१५८॥
इस प्रकार तीव्र राग-द्वेष के अभाव में बंध भी हलका होता है किन्तु निमित्त की दुर्बलता के कारण क्षय भी उत्कृष्ट नहीं होता है।
(श्रावकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ) .. तेसिणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिइ पण्णत्ता ? - गोयमा ! दसवाससहस्साई ठिइ पण्णत्ता।
भावार्थ - हे भन्ते ! उन देवों का आयुष्य, कितने काल का बतलाया गया है। हे गौतम ! दस हजार वर्ष की स्थिति बतलाई गई है।
अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इड्डी वा, जुई वा, जसे इ वा, उट्ठाणे इ वा, कम्मे इवा, बले इ वा, वीरिए इवा, पुरिसक्कारपरिक्कमे इ वा ? - हंता अत्थि।
भावार्थ - हे भन्ते ! उन देवों के ऋद्धि-परिवारादि सम्पत्ति द्युति-शरीर, आभरणादि की दीप्ति, यश-ख्याति, उत्थान, कर्म, बल- शारीरिक बल, वीर्य-जीवप्रभव या जीव जनित बल, पुरुषकार पुरुषार्थपुरुषाभिमान और पराक्रम-हिंमतभरी बहादुरी है ?
- हाँ ! है। ते णं भंते ! देवा परलोगस्साराहगा ? - णो इणद्वे समढे॥५॥ भावार्थ - हे भन्ते ! क्या वे देव परलोक के आराधक हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं हैं अर्थात् वे परलोक के आराधक नहीं हैं।
बन्दी.......आदि का उपपात सेजेइमेमामागर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा
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