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कोणिक राजा का आदेश
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सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमित्ता चंपा णयरिं मझमझेणं जेणेव बाहिरिया......सव्वेव हेट्ठिल्ला वत्तव्वया जाव णिसीयइ।
भावार्थ - वह चम्पा नगरी के मध्य बाजार से होता हुआ जहां कोणिक राजा की बाहरी राजसभा थी....(इसके बाद का सभी वर्णन-जो कि पहले कहा जा चुका है-यहां तक कहना चाहिए, कि - 'कोणिक राजा भगवान् महावीर स्वामी को वंदना-नमस्कार करके, सिंहासन पर बैठा')।
णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अद्धतेरस-सयसहस्साइं पीइदाणं दलयइ। दलयित्ता सक्कारेइ सम्माणेइ। सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ।
भावार्थ - कोणिक राजा ने सिंहासन पर बैठकर, उस प्रवृत्तिव्यापृत को साढ़े बारह लाख स्वर्ण की मुद्राओं का प्रीतिदान दिया; सत्कार-सन्मान किया और उसे विसर्जित किया।
विवेचन - इस मूल सूत्र में तो चाँदी या स्वर्ण के सिक्कों का उल्लेख नहीं है। किन्तु ग्रन्थान्तर में चक्रवर्ती आदि के प्रीतिदान का उल्लेख है। यथा -
वित्ती उ सुवण्णस्सा बारस अद्धं च सय सहस्साइं। तावइय चिय कोडी पीईदाणं तु चक्किस्स॥ एवं चेव पमाणं नवरं रययं तु केसवा दिति। मंडलियाण सहस्सा, पीईदाणं सयसहस्सा॥
इसके अनुसार ही यहां 'स्वर्ण के सिक्के' अर्थ किया है। सुना जाता है कि - सवा सोलह मासे की एक मुद्रा होती है। कोई कोई 'चांदी की मुद्रा'-रूप अर्थ भी करते हैं।
कोणिक राजा का आदेश . . २९- तएणं से कोणिए राया भंभसारपुत्ते बलवाउयं। आमतेत्ता एवं वयासी- भावार्थ - तब भंभसार के पुत्र कोणिक राजा ने बलवाउय- बल व्यापृत-सैन्यव्यापार में कुशल या सैन्य कर्मचारी-को बुलाया और वह उससे इस प्रकार बोला
खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि। हयगयरहपवरजोहकलियं च चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेहि।
भावार्थ - हे देवानुप्रिय ! आभिषेक्य (अभिषेक के योग्य अथवा विधिपूर्वक प्रधानपद पर स्थापित) हस्तिरत्न-श्रेष्ठ हाथी को सजाकर तैयार करो। घोड़े, हाथी, रथ और प्रवर योद्धाओं सहित चार अंगोंवाली सेना को तैयार करो-सजाओ। .. सुभद्दापमुहाण य देवीणं बाहरिया उवट्ठाण-सालाए पाडिएक्कपाडिएक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताइं जाणाई उवट्ठवेह।
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