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शिख नख वर्णन
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नोट - इनका विवेचन जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग ७ पृष्ठ ३८ पर है।
तीर्थंकर भगवंतों की वाणी जगत् के समस्त जीवों के लिए विशेष उपकारक होती है। तीर्थंकर भगवान् राग द्वेष रहित होते हैं। इसलिए उनकी वाणी सर्वथा सत्य होती है, उस वाणी के पैंतीस अतिशय होते हैं। जिनका कथन समवायांग सूत्र के ३५ वें समवाय में है। यहाँ भगवान् के अतिशयों का वर्णन चल रहा है। इसलिए उनकी वाणी के पैंतीस अतिशयों का भी वर्णन यहां दे दिया जाता है
वाणी के पैंतीस अतिशय-१. संस्कारयुक्त वचन २. उदात्त-उच्च वचन या उच्च स्वर ३. ग्राम्यदोष से रहित ४. मेघ-गर्जन के समान गंभीर ५. प्रतिध्वनि-गुंजन से युक्त ६. सरल ७. संगीतमयमालकोश आदि राग से युक्त ८. विशाल अर्थ युक्त ९. परस्पर अविरोधी वाक्यार्थ १०. शिष्टता युक्त या अपने सिद्धांत के प्रतिपादन की सामर्थ्य से युक्त ११. संदेह-रहित १२. किसी के दूषण लगाने की गुंजाइश से रहित १३. हृदयग्राही-सुनने वाले को प्रिय लगने वाले १४. देश-कालोचित १५. विवक्षित वस्तु-स्वरूप के अनुरूप १६. विषयानुकूल विस्तार से युक्त और असम्बद्ध विषयों के विस्तार से रहित १७. परस्पर सापेक्ष पदों से युक्त १८. प्रौढ़ स्त्री, बालक आदि की भूमिका के अनुसार प्रतिपादन शैली से सम्पन्न १९. घी-गुड के समान सुखकारी, स्निग्ध-मधुर २०. किसी के मर्म-प्रकाशन से रहित २१. मोक्ष रूप अर्थ एवं श्रुतचारित्र रूप धर्म से सम्बद्ध होना २२. उदारत्व-प्रतिपादय अर्थ का महान होना अथवा शब्द और अर्थ की विशिष्ट रचना होना २३. परनिंदा और आत्म-प्रशंसा से रहित. २४. गुणों के योग से प्रशंसित २५. कारक, काल, वचन, लिंग आदि से सम्बन्धित दूषणों से रहित २६. स्व-विषय में कौतूहल-वर्धक-अखण्ड जिज्ञासा-वर्द्धक, २७-२८. न तीव्र, न मंद अद्भुत प्रवाह से युक्त २९. वक्ता के प्रति भ्रान्ति या वक्ता के मन की भ्रान्तता विक्षेप-कहे जाते विषय के प्रति अरुचि और भय, रोष अभिलाषा आदि मनोदूषण से रहित ३०. वर्णनीय वस्तु का अनेक तरह से वर्णन करने के कारण, विचित्रता से युक्त ३१. अन्य वचनों की अपेक्षा आदर से ग्रहण किये जाने पर विशेषता से युक्त ३२. अलग-अलग वर्ण, पद और वाक्यों के द्वारा आकार-प्राप्त ३३. सत्त्व-परिगृहीत-उत्साह युक्त या बलप्रद ३४. अपरिखेदित्व-उपदेश देते हुए थकावट अनुभव न होना ३५. विवक्षित-कहे जाने वाले अर्थ की सम्यक् सिद्धि किये बिना-विषय को अधूरा ही छोड़कर, बंद नहीं होने वाले प्रवाह से युक्त भगवान् के वचन थे।
पहले के सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से कहे गये हैं और शेष अर्थ की अपेक्षा से।
नोट - इन ३५ अतिशयों का वर्णन जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के सातवें भाग के पृष्ठ ७१ पर हैं। . आगासगएणं चक्केणं आगासगएणं छत्तेणं, आगासियाहिं (सेय वर )चामराहिं आगस-फलियामएणं सपायवीढेणं सीहासणेणं, धम्मज्झएणं पुरओ पक-ढिज-माणेणं (चउद्दसंहिं समणसाहस्सीहि, छत्तीसाए अजिआ-साहस्सीहिं) सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुचि चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे, चंपाए णयरीए बहिया उवणगरग्गामं उवागए, चंपंणगरि पुण्णभई चेइयं समोसरिउँ कामे।
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