________________
४२
उववाइय सुत्त
जीवों के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशेषता सहित चिन्तक मन को जानते हैं अथवा मनः चिन्तित द्रव्य को विशेषता सहित जानते हैं।
विउव्वणिड्डिपत्ता चारणा विजाहरा आगा-साइवाइणो।
- कई विकुर्वणऋद्धि-नाना भांति के रूप बनाने की शक्ति से सम्पन्न थे। कई चारण-गति सम्बन्धी ऋद्धिवाले, विद्याधर-प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं के धारक, आकाशातिपाती-गगन गामिनी शक्ति । वाले थे।
विवेचन - चारण लब्धि दो प्रकार की है-जंघाचारण और विद्याचारण। जंघाचारण-अष्टम-तेलाअष्टम की तपश्चर्या करने वाले मुनि को यह लब्धि उत्पन्न होती है। जिससे जंघा से सम्बन्धित किसी एक व्यापार के द्वारा एक उड़ान में तेरहवें रुचकवर नामक द्वीप तक और मेरु पर्वत पर जा सकते हैं और वहाँ से आने में दो उड़ान लगानी पड़ती है। विद्याचारणं लब्धि-षष्ठ-दो दिन के उपवास षष्ठ की तपश्चर्या' करने वाले मुनि को पैदा होती है। जिससे श्रुत-विहित ईषत् उपष्टंभ-अवलम्बन से दो उड़ान के द्वारा आठवें नन्दीश्वर द्वीप तक और मेरु पर्वत पर जाने में समर्थ होते हैं और वहाँ से वापिस एक ही उड़ान में आ सकते हैं। - 'आगासाइवाइणो' की संस्कृतच्छाया दो तरह से बनती है- 'आकाशातिपातिनः' और 'आकाशादिवादिनः।' आकाशातिपाती-विद्या या पादलेप के प्रभाव से आकाश में गमन करने वाले अथवा आकाश से रजत आदि इष्ट या ओले आदि अनिष्ट वर्षा करने की शक्ति वाले। आकाशादिवादीआकाश आदि अमूर्त पदार्थों के साधने में समर्थ वादी।
निर्ग्रन्थों का तप अप्पेगइया कणगावलिं तवोकम्मं पडिवण्णा। एवं एकावलिं। भावार्थ - कई कनकावली तप कर्म और इसी प्रकार एकावली तप करने वाले थे।
विवेचन - कनकावली तप - स्वर्ण मणियों के भूषण विशेष के आकार की कल्पना से किया गया तप। इस तप में क्रमशः चतुर्थ-उपवास, षष्ठ-दो दिन के उपवास और अष्टम-तीन दिन के उपवास करते हैं। फिर चार-चार की दो पंक्तियों के रूप में या चार रेखाओं से नव कोष्ठक में बीच के कोष्ठक खाली रखते हुए आठ अष्टम। इसके बाद चतुर्थ से लगाकर दो-दो भक्त की वृद्धि करते हुए क्रमश: चौंतीस भक्त-सोलह दिन के उपवास तक चढ़ना। हार के मध्य भाग की कल्पना के रूप में २, ३, ४, ५, ६, ५, ४, ३, २ या आठ और छह रेखाओं से निर्मित पैंतीस कोष्ठकों को, मध्य के कोष्ठक को खाली रखते हुए चौंतीस अष्टमों की स्थापना। फिर चौंतीस भक्त से क्रमशः दो-दो भक्त कम करते हुए चतुर्थ तक करना। इसके बाद पूर्ववत् आठ अष्टम और क्रमशः अष्टम, षष्ठ और चतुर्थ। यह एक परिपाटी। पूरे तप में ऐसी चार परिपाटी की जाती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org