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संख इव णिरंगणा २
भावार्थ- शंख के समान नीरंगण - रागादि रञ्जनात्मक भाव से रहित थे ।
विवेचन - रंगण अर्थात् जो हमारे सामने जिस भाव से रंग कर आया हो, उसी भाव में स्वयं भी लीन हो जाना। जैसे-क्रोधी से क्रोध करना, द्वेषी से द्वेष करना, प्रेमी से प्रेम करना, अपनी स्तुति करने वाले की प्रशंसा करना, अपनी निन्दा करने वाले की निन्दा करना आदि। जो ऐसे भावों से मुक्त हो वह निरंगण कहलाते हैं ।
जीवो विव अप्पsिहयगई ३
भावार्थ - जीव के समान अप्रतिहत-रुकावट से रहित गति वाले थे।
विवेचन - गति अर्थात् अपने लक्ष्य को पाने की क्रिया । जब अपने जीवन-लक्ष्य का सही निर्णय हो जाता है और सही मार्ग की प्राप्ति का निश्चय हो जाता है, तो साधक लाखों विघ्नों से भी न घबराते हुए दृढ़ता के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ चला जाता है। गति की शिथिलता उसके विश्वास और मनोबल की कमजोरी की सूचक है। जिस प्रकार जीव को उसके उत्पत्ति-स्थान की ओर जाने से.. कोई भी नहीं रोक सकता है, उसी प्रकार वे अनगार भगवन्त भी मत-मतान्तर कृत शंका-कुशंका या आकांक्षा आदि रुकावटों से शिथिल गति नहीं होते थे ।
जच्च कणगमिव जायरूवा ४
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निर्ग्रन्थों की उपमाएँ
भावार्थ - अन्य कुधातुओं के मिश्रण से रहित सोने के समान जातरूप प्राप्त हुए निर्मल चारित्र में वैसे ही भाव से स्थित अर्थात् दोष से रहित चारित्र वाले थे।
(आदरिस - फलगा इव पायड भावा )
भावार्थ- दर्पणपट्ट के समान प्रकट भाव वाले थे।
विवेचन प्रकट भाव अर्थात् शठता से रहित मन के परिणाम। जैसे कि दर्पण में जैसे और जिस
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स्थिति में नयन, मुख आदि होते हैं, उसी रूप में उनकी प्रतिछाया दिखाई देती है, वैसे ही वे अनगार भगवन्त अन्तर में कपट रहित थे और बाहरी क्रिया में भी निष्कपट- निश्छल थे।
कुम्म इव गुत्तिंदिया ५
भावार्थ - - कच्छप के समान गुप्तेन्द्रिय थे।
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विवेचन - जैसे हमला आक्रमण होने पर कछुआ अपने चारों पैरों और गर्दन इन पांचों अङ्गों को ढाल में संकुचित करके अपने ऊपर होने वाले आघात ( चोट) को निष्फल बना देता है और सुरक्षित बन जाता है, वैसे ही वे अनगार भगवन्त विकारों का प्रहार होने पर, इन्द्रियों को विषयों से खींचकर, निवृत्ति भाव की ढाल में संकुचित हो जाते थे-छिप जाते थे और विकारों के प्रहार को निष्फल बना देते थे ।
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