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बाह्य तप
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अर्थ - शब्द कान में न पड़े यह तो संभव नहीं है, क्योंकि शब्दों को सुनना यह श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है, इसलिए शब्द तो कान में पड़ेंगे ही इससे कर्मबन्ध का कारण नहीं होता है, किन्तु मनोज्ञ शब्दों पर राग करने से और अमनोज्ञ शब्दों पर द्वेष करने से कर्मबन्ध होता है क्योंकि राग-द्वेष करना कर्मबन्ध का कारण होता है, यही बात दूसरी इन्द्रियों के बारे में भी समझना चाहिए। रूप चक्षु का विषय बनता है। गन्ध घ्राणेन्द्रिय का, रस रसनेन्द्रिय का और स्पर्श स्पर्शनेन्द्रिय का विषय बनता है। इससे कर्मबन्ध नहीं होता किन्तु मनोज्ञ रूप, गन्ध, रस और स्पर्श पर राग भाव करने से तथा अमनोज्ञ रूप, गन्ध, रस और स्पर्श पर द्वेष करने से कर्मबन्ध होता है।
उत्तराध्ययन सूत्र के ३२ वें अध्ययन में भी इसका विस्तृत वर्णन है। से किं तं कसाय-पडिसंलीणया ? कसाय-पडिसंलीणया चउव्विहा पण्णत्ता। भावार्थ - कषाय प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? कषाय प्रतिसंलीनता के चार भेद कहे गये हैं। तं जहा-कोहस्सुदय-णिरोहो वा उदय-पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं। भावार्थ - जैसे-१. क्रोध के उदय को रोकना या उदय में आये हुए क्रोध को निष्फल करना। माणस्सुदय-णिरोहो वा उदय-पत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं। भावार्थ - २. मान के उदय को रोकना या उदय में आये हुए मान को निष्फल करना। माया-उदय-णिरोहो वा उदय-पत्ताए वा मायाए विफलीकरणं। भावार्थ - ३. माया के उदय को रोकना या उदय में आई हुई माया को निष्फल करना।
लोहस्सुदय-णिरोहो वा उदय पत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरणं। से तं कसायपडिसंलीणया।
भावार्थ - ४. लोभ के उदय को रोकना या उदय में आये हुए लोभ को निष्फल करना। यह कषाय प्रतिसंलीनता का स्वरूप है।
विवेचन - क्या संसारी और क्या साधक, सभी के जीवन में आवेशों को रोकने का प्रश्न उठता रहता है। क्योंकि आवेश बनते हुए कार्यों को बिगाड़ देते हैं। आवेशों के वशीभूत नहीं होना सहज नहीं है। बड़े-बड़े साधक भी इनके चक्कर में फंस जाते हैं। फिर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या ? एक तरफ से इन्हें रोका जाता है, तो दूसरी तरफ से दूसरे विविध रूपों में प्रकट होते हैं। किन्तु दृढ़ मनोबली साधक इनसे हारता नहीं है। वह कषायों के विरोधी भावों में स्थिर होने का अभ्यास करता रहता है। उसे ही कषाय प्रतिसंलीनता कहते हैं। _ . कषाय-प्रतिसंलीनता के साधारणत: दो रूप हैं - १. उदय-निरोध और २ उदय विफलीकरण। क्रोधादि की अनिष्टता के भावों का विचार करना, इन्हें नहीं करने का बार-बार सङ्कल्प करना, अक्रोधादि गुणों से होने वाले लाभों को बार-बार याद करना, क्रोधादि के निमित्तों को सन्मुख नहीं
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