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बाह्य तप
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भावार्थ - जैसे-१. श्रोत्रेन्द्रिय-कान के विषय-शब्द में प्रवृत्ति को रोकना अर्थात् शब्दों को नहीं सुनना अथवा श्रोत्रेन्द्रिय को प्राप्त हुए विषय में राम-द्वेष नहीं करना।
विवेचन - कान में शब्द नहीं पड़ने देना यह संभव नहीं है। किन्तु अपने कार्य की तल्लीनता, इन्द्रियों को अपने विषयों में प्रवृत्त होने से बहुत कुछ रोक सकती है। यदि कदाचित् प्रिय या अप्रिय शब्द कान में गिर भी गये हों तो उनके प्रति उदासीनता रखने से राग-द्वेष की प्रवृत्ति रुक सकती है।
चक्खिदिय-विसय-पयार-णिरोहो वा, चक्खिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोस-णिग्गहो वा।
भावार्थ - २ चक्षु इन्द्रिय-आंख के विषय रूप में प्रवृत्ति को रोकना-अच्छे-बुरे रूप नहीं देखना अथवा चक्षुइन्द्रिय को प्राप्त हुए विषय में राग-द्वेष नहीं करना। ___घाणिंदिय-विसय-पयार-णिरोहोवा, पाणिंदिय-विसय-पत्तेसुअत्थेसुराग-दोसणिग्गहो वा।
भावार्थ - ३. घ्राणइन्द्रिय-नाक के विषय गंध में प्रवृत्ति को रोकना अथवा घ्राणइन्द्रिय को प्राप्त हुए अर्थ-गंध में राग-द्वेष नहीं करना। . जिभिदिय-विसय-पयार-णिरोहो वा, जिभिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोस-णिग्गहो वा। .. भावार्थ - ४. जिह्वा इन्द्रिय-जीभ के विषय में प्रवृत्ति को रोकना अथवा जिह्वा इन्द्रिय को प्राप्त हुए
अर्थ-रस में राग-द्वेष नहीं करना। .. फासिंदिय-विसय-पयार-णिरोहो वा, फासिंदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेस रागदोस-णिग्गहो वा। से तं इंदिय-पडिसंलीणया।
भावार्थ - ५. स्पर्शन इन्द्रिय-त्वचा के विषय स्पर्श में प्रवृत्ति को रोकना अथवा स्पर्शन इन्द्रिय को प्राप्त हुए अर्थ-स्पर्श में राग-द्वेष नहीं करना। यह इन्द्रियप्रतिसंलीनता का स्वरूप है।
विवेचन - इन्द्रियों के अर्थ (शब्दादि) के साथ होने वाले सम्बन्ध को 'विषय' और उन विषयों में होने वाली प्रीति-अप्रीति को 'विकार' कहते हैं । इन्द्रियों को शून्य या स्तब्ध कर देना अथवा उन्हें नष्ट कर
देना यह साधना-मार्ग नहीं है। इन्द्रियों की प्रवृत्ति पर अंकुश रखना ही सही साधना मार्ग है। इन्द्रियों को - उनके अनुकूल विषयों को अधिक देने से उन पर काबू नहीं पाया जा सकता। इन्द्रियों का स्वच्छंद विचरण
वैषयिक प्रवृत्ति है। किन्तु उन्हें आत्महितकर कार्यों में लगाना साधना है। इन्द्रियों का स्वभाव चपल है। अतः वे विषय की ओर दौड़ती रहती है। उस दौड़ को तेज होने से रोकने को ही 'प्रचारनिरोध' कहते हैं। अर्थात् इन्द्रियाँ तो अनायास ही 'विषययुक्त' बन जाती है। किन्तु उन विषयों के साथ आत्मा को नहीं जोड़ना चाहिए। अनुत्सुक भाव से इन्द्रियों को उनसे हटा लेना चाहिए। किन्तु अनायास ही जिन-अर्थों की
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