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आभ्यन्तर-तप
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भावार्थ - कायोत्सर्ग के द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त व्युत्सर्ह कहलाता है।
विवेचन - उच्चार आदि के परिष्ठापन में, नदी उतरने आदि में विवशतावश लगे हुए, दोषों की शुद्धि के लिये यह प्रायश्चित्त है। जिसमें विभिन्न दोषों के लिये, विभिन्न प्रमाण युक्त श्वास-उच्छ्वास के कायोत्सर्ग विहित हैं। जैसे स्वप्नादि में लगे हुए दोषों के लिए १०० या १०८ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग-शरीर को निश्चल रखना।
तवारिहे६, भावार्थ - तप के द्वारा होने योग्य विशुद्धि तपार्ह कहलाता है।
विवेचन - सचित्त वस्तु के स्पर्श से, आवश्यकी आदि समाचारी को नहीं करने से, प्रतिलेखनाप्रमार्जना आदि नहीं करने से लगे हुए दोषों की विशुद्धि के लिये बाह्यतप अनशनादि रूप प्रायश्चित्त होता है।
छेदारिहे ७, भावार्थ - छेद-दीक्षापर्याय को कम करने से होने वाली विशुद्धि छेदाह कहलाती है।
विवेचन - सचित्त पृथ्वी आदि की विराधना और प्रतिक्रमण नहीं करने आदि से लगे हुए दोषों की शुद्धि के हेतु छेद-दीक्षाकाल को घटा देना-दिया जाता है। : मूलारिहे ८,
भावार्थ - महाव्रतों की फिर स्थापना के द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त मूलाह कहलाता है। .... विवेचन - तीन बार प्रायश्चित्त स्थान के सेवन, हस्तकर्म, मैथुन, रात्रिभोजन आदि के द्वारा . चारित्र-भंग और किसी भी महाव्रत का जानबूझ कर भंग करने पर, जो पुनः नई दीक्षा दी जाती है, उसे 'मूलाई' प्रायश्चित्त कहते हैं। ... अणवट्टप्पारिहे ९,
. भावार्थ - प्रायश्चित्त रूप में दिये हुए अमुक प्रकार के विशिष्ट तप को जब तक न करले तब तक उसका सम्बन्धविच्छेद रखना और गृहस्थभूत बनाकर वापिस दीक्षा भी नहीं देना-अनवस्थाप्यार्ह प्रायश्चित्त कहलाता है।
विवेचन - इस प्रायश्चित्त के आने के तीन बड़े कारण हैं जो कि ठाणांग सूत्र के तीसरे ठाणे में ... और बृहत्कल्प के चौथे उद्देशे में बताये हैं। . पारंचियारिहे १०।से तं पायच्छित्ते।
भावार्थ - सम्बन्ध विच्छेद करके तप विशेष कराने के बाद गृहस्थभूत बना कर महाव्रत स्थापना के द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त-पारञ्चिताह कहलाता है। यह प्रायश्चित्त का स्वरूप है।
विवेचन - इसके तीन कारण भी ठाणांग सूत्र के तीसरे ठाणे में और वृहत्कल्प के चौथे उद्देशे में बतलाये गये हैं।
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