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उववाइय सुत्त
विवेचन - जीने की आशा और मरने का भय, अनेक आत्मिक दोषों को पैदा करते हैं। जिसने इन दोनों को छोड़ दिया हो, वही क्रोधादि भावों पर सही विजय पा सकते हैं। जीना और मरना तो कर्माधीन है और आयुष्य कर्म पिछले जन्म में ही बांधकर लाया जाता है। अत: जीवन आशा और मरणभय से कुछ विशेष लाभ नहीं हो सकता। किन्तु कर्त्तव्य में शिथिलता ही पैदा होती है। अतः ज्ञानी पुरुष इन भावों से मुक्त हो जाते हैं।
वयप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा।
भावार्थ - वे उत्तम व्रत-श्रेष्ठतम साधुता के धारक थे। करुणा आदि श्रेष्ठ गुणों के स्वामी थे। आहार शुद्धि आदि श्रेष्ठ क्रिया-करण के पालक थे। महाव्रत आदि श्रेष्ठ आचार-चरण के धनी थे। .. विवेचन - मूल और करण शब्द से मूलगुण जो कि पांच महाव्रत आदि करण सत्तरि के सित्तर बोल लिये गये हैं तथा गुण प्रधान और चरण प्रधान शब्द से पिण्डविशुद्धि आदि रूप चरणसत्तरि के ७० बोल लिये गये हैं।
चरणसत्तरि के ७० भेद - वय-समणधम्म, संजम-वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। णाणाइतीय तव, कोह-णिग्गहाइ चरणमेयं॥
अर्थ - ५ महाव्रत, १० यतिधर्म, १७ प्रकार का संयम, १० प्रकार की वैयावच्च, ब्रह्मचर्य की ९ वाड़, ३ रत्न (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) १२ प्रकार का तप, ४ कषाय का निग्रह; ये सभी मिला कर चरणसत्तरि के ७० भेद हुए।
करणसत्तरि के ७० भेद - पिंडविसोही समिई, भावणा-पडिमा इंदिय-णिग्गहो य। पडिलेहण-गुत्तीओ, अभिग्गहं चेव करणं तु॥
अर्थ - ४ प्रकार की पिण्ड-विशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ भिक्षु प्रतिमा, ५ इन्द्रियों का निरोध, २५ प्रकार की पडिलेहणा, ३ गुप्ति, ४ अभिग्रह ये सभी मिला कर ७० भेद हुए।
णिग्गहप्पहाणा णिच्छयप्पहाणा अजवप्पहाणा मद्दवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा।
भावार्थ - वे अनाचार को रोकने में कुशल, श्रेष्ठ निश्चयवाले, माया-छल कपट और मान के उदय का निग्रह करने में कुशल, उत्तम लाघव-क्रिया में दक्षता के धारक एवं क्रोध और लोभ के उदय का निग्रह करने में चतुर थे।
विवेचन - स्थविर भगवन्तों के हाथ में ही शासन की बागडोर रहती है। अतः उन्हें अनाचार प्रवृत्ति का निग्रह भी करना पड़ता है। क्रोध आदि को जीत लेने पर निग्रह कैसे संभव हो सकता है ?
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