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स्थविरों के बाह्य-आभ्यन्तर गुण
वस्तुतः क्रोध से अनाचार की वृद्धि नहीं रोकी जा सकती है। किन्तु ओज आदि गुणों के द्वारा ही साधकों के हृदय को जीत कर उन्हें सदाचार में प्रवृत्त किया जा सकता है। इसमें निश्चयबलतत्त्वनिर्णय और विहित अनुष्ठानों को करने के लिये योग्य, विशुद्ध एवं दृढ़ सङ्कल्प बल की आवश्यकता रहती है। इसका कथन 'निश्चयप्रधान' विशेषण के द्वारा किया गया है। 'जितक्रोधादि' विशेषणों के द्वारा क्रोधादि के उदय को निष्फल करने का विधान किया है और 'आर्जव-सरलता, मार्दव-कोमलता, विनय, क्षान्ति-क्षमा और मुक्ति-निर्लोभत्ता में प्रधानता' के द्वारा क्रोधादि को जीतने के साधनों के प्रयोग में उनकी कुशलता का वर्णन किया है। 'आर्जवप्रधान' और 'मार्दवप्रधान' के बाद 'लाघवप्रधान' विशेषण रखने का यह रहस्य हो सकता है कि सरलता और विनय से युक्त होने पर ही वास्तविक क्रियाकुशलता की प्राप्ति होती है। पहले आया हुआ 'लाघवसम्पन्न' विशेषण 'द्रव्य और भाव से हलकेपन' का बोधक है और 'लाघवप्रधान' विशेषण 'विहित क्रियाओं अथवा तत्त्वज्ञान की विविध शैलियों की दक्षता-चतुराई' का बोधक है।
विजापहाणा मंतष्पहाणा वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा णयप्पहाणा णियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा।।
. भावार्थ - वे अनगार भगवन्त प्रज्ञप्ति आदि विद्या के श्रेष्ठ धारक, उत्तम मंत्रज्ञ, श्रेष्ठ ज्ञानी, ब्रह्मचर्य में याकुशलानुष्ठान में स्थित, नय-नीति में प्रधान, उत्तम अभिग्रहों के स्वामी, सत्यप्रधान और शौच-निर्लेपता और दोष से रहित समाचारी के श्रेष्ठ धारक थे।
विवेचन - स्थविरों की विद्या, मंत्र, वेद और ब्रह्म में प्रधानता के कथन से, सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि उनको रहस्यमयी लौकिक साधनाओं का ज्ञान था और परसिद्धान्त एवं उसमें से विकसित उत्तरवर्ती मानसिक साधनाओं का भी ज्ञान था तथा वे उन्हें निवृत्ति मार्ग के अनकूल भावों में परिणत करने की शक्ति रखते थे। .. चारुवण्णा लजा-तवस्सी-जिइंदिया सोही अणियाणा अप्पुस्सुया अबहिल्लेसा अप्पडिल्लेस्सा सुसामण्णरया दंता इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओ-काउं विहरंति।
भावार्थ - उन अनगार भगवन्तों की सब जगह भूरि-भूरि प्रशंसा होती थी। उनके लज्जा प्रधान और जितेन्द्रिय शिष्य थे। वे जीवों के.सुहृद्-मित्र थे-किसी के भी प्रति उनके हृदय में कलुषित भावना नहीं थी। तप संयम के बदले में पुण्य फल की इच्छा-याचना नहीं करते थे। उत्सुकता से रहित थे। संयम से बाहर की मनोवृत्तियों से रहित थे। अनुपम अथवा विरोध से रहित वृत्तियों के धारक थे। श्रमण की क्रियाओं में पूर्णतः लीन रहते थे। गुरुओं के द्वारा दमन को ग्रहण करते थे। विनय करने वाले थे और इस निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही आगे रख कर विचरण करते थे। . विवेचन - 'चारुवण्णा' - सत्कीर्ति या शरीर का गौर आदि सुन्दर वर्ण या सत्प्रज्ञा। 'लज्जातवस्सी-जिइंदिया-लज्जाप्रधान जितेन्द्रिय शिष्यों के स्वामी या लज्जा और तप की शोभा के द्वारा
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