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उववाइय सुत्त
इन्द्रियों के जीतने वाले। यद्यपि 'जिइंदिया' विशेषण पहले आ चुका है, तथापि लज्जा और तप के विशेष भाव से युक्त होने के कारण पुनरुक्ति नहीं है।
वे स्थविर भगवन्त निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही दृष्टि समक्ष रखते थे। क्योंकि वे जानते थे कि छद्मस्थ व्यक्ति कितना ही ज्ञानी और स्थितात्मा क्यों न हो, किन्तु वह निर्ग्रन्थ प्रवचन से निरपेक्ष स्वतंत्र बुद्धि से निर्दोष विचार नहीं कर सकता। वे निर्ग्रन्थप्रवचन की अनुगामिता को बुद्धि की गुलामी नहीं-किन्तु स्वच्छन्द बुद्धि रूपी जंगली घोड़े को वश में करने वाली सुन्दर लगाम मानते थे।
तेसि णं भगवंताणं आयावाया (आयावाइणो) वि विदिता भवंति। परवाया (परवाइणो) विदिता भवंति। आयावायं जमइत्ता-णलवणमिव मत्तमातंगा, अच्छिद्दपसिण-वागरणा, रयण-करडंग-समाणा, कुत्तिया-वणभूया (परवाईहिं अणोक्कंता, अण्णउत्थिएहिं अणोद्धंसिज्जमाणा, अप्पेगइया आयारधरा जाव विवागसुयधरा चोहसपुव्वी) पर-वादिय-पमद्दणा, दुवालसंगिणो समत्त-गणि-पिडग-धरा। ___ भावार्थ - उन अनगार भगवन्तों को अपने सिद्धान्तों के प्रवाद भी ज्ञात थे और परवाद-दूसरे मत-मतान्तर भी ज्ञात थे। स्व-सिद्धान्त को पुनः पुनः परावर्तन से अच्छी तरह जानकर, कमल वन मेंरमण करने वाले मस्त हाथी के समान थे, वे लगातार प्रश्न-उत्तर के करने वाले होकर विचरते थे। वे रत्न के करण्डक के समान और कुत्रिकापण-तीनों लोक की प्राप्त होने योग्य वस्तुओं की देवाधिष्ठित दुकान के तुल्य थे। परवादियों का- उनके मत का मर्दन करने वाले थे। बारह अंगों के ज्ञाता थे। समस्त-अनन्त गम और पर्याय से युक्त गणिपिटक के धारक थे।
विवेचन - गणिपिटक-अर्थपरिच्छेदों का पिटक के तुल्य स्थान या अर्थ-निर्णयों के कोषनिधि-आचार्य का पिटक अर्थात् प्रकीर्णक, श्रुतादेश, श्रुतनियुक्ति आदि.से युक्त जिनप्रवचन। बारह अंग के धारक होकर भी, प्रकीर्णकादि का ज्ञाता न हो। अतः इस अर्थ का ज्ञान कराने के लिये 'दुवालसंगिणो' के बाद 'समत्त'-विशेषण आया है।
गणिपिटक - गणो गच्छो गुणगणो वाऽस्यास्तीति गणी आचार्यः, तस्य पिटकमिव पिटकम् सर्वस्वमित्यर्थः गणिपिटकम्।
अर्थ - गण अर्थात् गच्छ के स्वामी को अथवा गुण गण के धारक को गणी कहते हैं । अर्थात् आचार्य भगवन्त का दूसरा नाम गणी है। पिटक का अर्थ है - पेटी (सन्दूक)। जिस प्रकार जौहरी के रत्नों की पेटी होती है उसी प्रकार आचारांग आदि बारह अंग जिनके लिये रत्नों की पेटी के समान है उसे गणिपिटक कहते हैं। __कुत्तियावण-कौपृथिव्यांत्रिजमापणायतिव्यवहरतियत्रहद्देऽसौ कुत्रिजापर्णः।देवाधिष्ठितत्येन स्वर्गमर्त्यपाताल-भूत्रित्रयसंभविवस्तु संपादके आवणे हटे।
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