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उववाइय सुत्त
गृहदेवता नहीं है। निष्कर्ष यह है कि - जहां स्नान का पूरा वर्णन नहीं है वहाँ स्नान सम्बन्धी सम्पूर्ण वर्णन को लेने के लिये 'कयबलिकम्मे' शब्द का प्रयोग हुआ है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के तीसरे वक्षस्कार में भरत चक्रवर्ती के स्नान का विस्तृत वर्णन है। वहाँ पर 'बलिकर्म' शब्द का प्रयोग नहीं है। निष्कर्ष यह है कि जहाँ स्नान का पूरा वर्णन है वहाँ कयबलिकम्मे' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।
___ समर्थ चर्चावादी श्री जेठमल जी म. सा. द्वारा रचित 'समकित सार' ग्रन्थ में भी 'कयबलिकम्मे' शब्द का उपरोक्त अर्थ ही किया है कि - स्नान सम्बन्धी सारे वर्णन को बताने के लिये ही 'कयबलिकम्मे' शब्द का प्रयोग होता है। गृहदेवता का पूजन' यह अर्थ आगम सम्मत नहीं है।
सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमित्ता, चंपाए णयरीए मझं-मज्झेणं जेणेव कोणियस्स रण्णो गिहे, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए. अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धावेइ। वद्धावित्ता एवं वयासी-जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं कंक्षति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पीहंति, जस्स णं देवाणुप्पिया सणं पत्थंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं अभिलसंति, जस्स णं देवाणुप्पिया णामगोत्तस्स वि सवणयाए हट्ठतुटु जाव हियया भवंति, से णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुचि चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइजमाणे, सुहं सुहेणं विहरमाणे, चंपाए णयरीए उवणगरगामं उवागए, चंपं णगरि पुण्णभई चेइयं समोसरिउँ कामे। तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पियट्ठ-याए पियं णिवेदेमि पियं ते भवउ। ___ कठिन शब्दार्थ-उवट्ठाणसाला - उपस्थान शाला-बैठने की सभा, जएणं- सामान्य जय, विजएणंविशिष्ट जय-प्रबल शत्रुओं पर जय, वद्धावेइ - वृद्धापयति-जय विजय से वृद्धि को प्राप्त हो।
भावार्थ - वह प्रवृत्ति निवेदक अपने घर से निकल कर चम्पा नगरी के मध्य में होता हुआ जहाँ कोणिक राजा का निवास स्थान था, जहाँ बाहरी सभा भवन था और जहां भंभसार श्रेणिक का पुत्र कोणिक राजा (बैठा) था, वहाँ आया। जय-विजय से (आपकी वृद्धि हो-इस प्रकार) वधाया अर्थात् आप जय विजय करते हुए वृद्धि को प्राप्त होवें ऐसा आशीर्वाद दिया फिर वह इस प्रकार बोला-हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शन चाहते हैं एवं प्राप्त होने पर छोड़ना नहीं चाहते हैं, हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन नहीं हुए हों तो पाने की इच्छा करते हैं, हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन हो-ऐसे उपायों की अन्यजन से अपेक्षा करते हैं-अर्थात् चाहते हैं, हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन के लिए अभिमुख होना सुन्दर मानते हैं और हे देवानुप्रिय ! जिनके नाम-महावीर, ज्ञात पुत्र, सन्मति आदि और गोत्र-काश्यप के सुनने मात्र से हर्षित, संतुष्ट यावत् हर्षावेश से विकसित हृदयवाले हो जाते हैं - वे ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, क्रमशः विचरते हुए, मार्ग में आने वाले गांवों को पावन करते हुए और सुखपूर्वक
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