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शिख नख वर्णन
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भावार्थ - भगवान् का श्रेष्ठ घोड़े के गुप्तांग के समान अच्छी तरह गुप्त बना हुआ उत्तम गुह्यभाग था। जातिवान् घोड़े के शरीर के समान भगवान् का शरीर लेप से लिप्त नहीं होता था। श्रेष्ठ हाथी के समान पराक्रम और विलास युक्त चाल थी। हाथी की सूंढ के समान जंघाएँ थी। गोल डिब्बे के ढक्कन के समान निमग्न और गुप्त घुटने थे। हरिणी की जंघा के समान और 'कुरुविंद' नामक तृण के समान तथा सूत्र बनाने के पदार्थ के समान क्रमशः उतार सहित गोल जंघाएँ थीं। अथवा पिंडलियाँ थीं। सुन्दराकार, सुगठित और गुप्त पैर के मणिबन्ध-टखने थे। शुभ रीति से स्थापित-रखे हुए कछुए के चरणों के समान चरण थे। क्रमशः बढ़ी-घटी हुई या बड़ी-छोटी पैर की अंगुलियाँ थीं। ऊँचे उठे हुए, पतले, ताम्रवर्ण
और स्निग्ध पैर के नख थे। लाल कमल दल के समान कोमल और सुकुमार पगतलियां थीं। इस प्रकार की अपूर्व सौन्दर्य की राशि देह-यष्टि में श्रेष्ठ पुरुषों के एक हजार आठ लक्षण शोभित होते थे। . (णग-णगर-मगर-सागर-चक्कंक-वरंक-मंग-लंकिय-चलणे, विसिटु-रूवे, यवह-णिद्धम-जलिय-तडितडिय-तरुण-रवि-किरण-सरिस-तेए। - अणासवे अममे अकिंचणे छिण्णसोए णिरुवलेवे ववगय-पेम-राग-दोस-मोहे, णिग्गंथस्स पवयणस्स देसए, सत्थणायगे, पइट्ठावए, समणगपई, समणग-विंदपरियट्टए, चउतीस-बुद्ध-वयणातिसेस-पत्ते पणतीस-सच्च-वयणातिसेस-पत्ते।) ___यह पाठ वाचनान्तर (दूसरी वाचना) में है। वह ज्यों का त्यों यहाँ ले लिया गया है इसका भावार्थ इस प्रकार हैं -
भावार्थ - पर्वत, नगर, मगर, समुद्र और चक्र रूप श्रेष्ठ चिह्नों और स्वस्तिक आदि मंगल चिह्नों से अंकित भगवान् के चरण थे। भगवान् का रूप विशिष्ट था। धूएँ से रहित जाज्वल्यमान अग्नि, फैली हुई बिजली और तरुण-दूसरे पहर के या अभिनव सूर्य किरणों के समान भगवान् का तेज था।
. भगवान् ने कर्म के आत्म-प्रदेश के द्वारों को रूंध दिया था। मेरेपन की बुद्धि त्याग दी थी। अतः उन्होंने अपनी मालिकी में कोई भी वस्तु नहीं रखी थी। भव-प्रवाह को छेद दिया या परिग्रह संज्ञा के अभाव के कारण शोक से रहित थे। निरुपलेप-द्रव्य से निर्मल देहवाले और भाव से कर्मबन्ध रूप लेप से रहित थे। प्रेम-मिलन के भाव, राग-विषयों के अनुराग, द्वेष - अरुचि के भाव और मोह-मूढ़ताअज्ञान के भाव से अतीत हो चुके थे।
निर्ग्रन्थ प्रवचन के उपदेशक, शास्ता-आज्ञा के प्रवर्तक, नायक और प्रतिष्ठापक-उन उन उपायों के द्वारा व्यवस्था करने वाले थे। अतः साधु-संघ के स्वामी थे और श्रमणवृन्द के वर्द्धक- उन्नतिकर्ता या पूर्णता की ओर लेजाने वाले थे। जिनवर के वचन आदि चौंतीस अतिशेष अतिशय तीव्र और उत्कृष्ट पुण्योदयसे सर्वजन हितङ्करता की भावना से पूर्वभव में बद्ध पुण्य के उदय से होने वाली, जन साधारण के लिए दुर्लभ पौद्गलिक रचनादि विशेष के और सत्य-वचन के पैंतीस अतिशयों के धारक थे।
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