Book Title: Upasak Anand
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 16
________________ आनन्द की जीवन-नीति । ३ एक बार आर्य सुधर्मा स्वामी विहार करते-करते चम्पा में पधारे। उनके सुप्रसिद्ध शिष्य जम्बू मुनि ने सुधर्मा स्वामी से सातवें अङ्ग को श्रवण करने की इच्छा प्रकट की। आर्य सुधर्मा ने अपने शिष्य की इच्छा के हेतु उपासक दशांग का बखान किया। वाणिज्यग्राम में आनन्द : भगवान् महावीर के समय में वाणिज्यग्राम नामक एक नगर था, जिसमें उन दिनों आनन्द नामक एक गाथापति निवास करता था । उन दिनों विशेष रूप से प्रतिष्ठित और जन-समूह द्वारा प्रशंसित गृहस्थ गाथापति कहलाता था । आनन्द गाथापति थाक्योंकि उसके धन-धान्य, ऋद्धि, वैभव तथा उसके व्यवहार को देखकर लोग उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे। उसके ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं : अड्डे दित्ते वित्थिण्ण विउल भवण - सयणासन - जाण - वाहणाइण्णे, बहु- धण बहुजायरूवरयए, आओग-पओग संपउत्ते, विच्छडिड्य - विउल- भत्त- पाणे, बहुदासी - दास गोमहिस गवेलप्पभूए, बहु-ज -जणस्स अपरिभूए । 1 आनन्द विशाल समृद्धि से युक्त था । स्वभाव से भी ओजस्वी, आजकल के अनेक बनियों की भाँति दब्बू नहीं । वास्तव में दब्बूपन का कारण प्रायः संस्कारहीनता, बुद्धि की कमी अथवा अनैतिकता है। जिसमें सभ्य और शिष्ट पुरुषों के बीच बैठने और उचित बर्ताव करने की योग्यता नहीं है, जो बुद्धि-हीन है अथवा जिसके व्यापार-व्यवहार में अनैतिकता है, उसे दूसरों के सामने दब कर रहना पड़ता है जिसमें जीवन सम्बन्धी ऐसी कोई दुर्बलता नहीं, वह किसी से दबेगा भी नहीं । आनन्द के विषय में, शास्त्र में जो कहा गया है, उससे प्रतीत होता है, कि वह बड़ा ही सभ्य - शिष्ट, बुद्धिशाली, तेजस्वी और नीति-निष्ठ था । उस समय में व्यापारियों में अग्रणी होने के कारण वह विपुल धन-सम्पत्ति का स्वामी था । शय्या, आसन, घोड़ा गाड़ी आदि भोग की प्रचुर सामग्री से भरे-पूरे उसके अनेक विशाल महल थे। नित्य प्रति उसके यहां बहुत-सा भोजन बच जाया करता था, बहुत से गरीबों की भूख की ज्वाला शान्त हुआ करती थी । हमारे देश में पहले इतनी उदार भावना थी, कि गृहस्थ-जन नाप-नाप कर और तोल-तोल कर भोजन नहीं बनाते थे। ऐसा करना बुरा समझा जाता था। गीताकार ने तो स्पष्ट कहा था, कि लोग अपने उदर की पूर्ति करने के लिए केवल भोजन बनाते हैं, और उसका थोड़ा-सा भी भाग अतिथिअभ्यागतों को दान नहीं करते, वे अध-भोजी हैं, पाप का भोजन करते हैं । वह भोजन अमृत नहीं, विष है। श्रावक को अमृत भोजी होना चाहिए । अमृत- भोजी आनन्द : भोजन बनाने में बहुत-सा आरंभ-समारंभ होता है और आरंभ-समारंभ से पाप होता है। मगर बुद्धिमान गृहस्थ उस पाप के द्वारा भी पुण्य का उपार्जन किस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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