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आनन्द की जीवन-नीति
यह श्री उपासक दशांग सूत्र है । श्रमण भगवान् महावीर ने जगत्-कल्याण की दृष्टि से जो उपदेश दिया, उसे उनके शिष्यों गणधरों ने द्वादशांगी के रूप में कंठस्थ कर लिया था। यह उन दिनों की बात है, जब हमारे यहां भिक्षु संघ में लिखने की पद्धति प्रचलित नहीं हुई थी। उन दिनों महापुरुषों के सन्देश, उनके शिष्यों के द्वारा इसीलिए कंठस्थ कर लिए जाया करते थे। गुरु अनुग्रह-पूर्वक उन्हें कंठस्थ करा भी दिया करते थे । इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से वह उपदेश यथावत् कायम रहता था । प्रत्येक जिज्ञासु, जो आगम का अध्ययन करना चाहता था, अपने गुरु से सुनकर ही अध्ययन करता था। इसी कारण भारत के प्राचीन शास्त्र 'श्रुत' या ' श्रुति' कहलाते हैं। सूक्त भी कहा जाता है ।
जैन परम्परा का श्रुत यों तो बहुत विशाल है, किन्तु उस समग्र श्रुत - राशि का आदि-स्रोत द्वादशांगी है। द्वादशांगी का द्वादश अर्थ है-आचारांग आदि शास्त्र | जैन परम्परा के अनुसार यह अंग-सूत्र साक्षात् भगवान् महावीर के उपदेश हैं और गौतम आदि गणधरों ने उन्हें शब्द - बद्ध किया है।
श्रुत की महिमा
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कालचक्र के अप्रतिहत प्रभाव से आज वह आगम अविकल रूप में हमें उपलब्ध नहीं है। फिर भी उसका जितना अंश शेष बचा है, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उससे प्राचीन भारतीय विचार-धारा के एक अत्यन्त उज्जवल और मौलिक अङ्ग का हमें परिचय मिलता है। ये वही विचार हैं, जिन्होंने भारतवर्ष के निष्प्राण क्रियाकाण्डमय और बहिर्मुख धार्मिक जीवन में एक बार उथल-पुथल मचा दी थी। जिन विचारों ने जगत् को धर्म का एक प्राणमय आन्तरिक स्वरूप प्रदान किया था। जिन विचारों की बदौलत ही जनता को अपने अन्तर में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने के लिए एक नूतन दृष्टिकोण मिला था । वास्तव में, आगमों में ये ही विचार संगृहीत हैं । जीवन की दृष्टि से तो ये आगम उपयोगी हैं ही; धार्मिक, सामाजिक एवं इतिहास
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