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इस तरह ( १ ) एकान्तवादी मतों का खण्डन, (२) स्याद्वाद सिद्धान्त के स्वरूप का प्रतिपादन और (३) अन्य दार्शनिकों के अभिप्रेत सिद्धान्तों से भी स्याद्वाद का समर्थन ये तीन कार्य स्याद्वाद रहस्य का प्रधान अभिधेय रहा है जो कि मूल श्लोक में भी है ।
इन मुख्य तीन कार्यों के अतिरिक्त दूसरे अनेक वादों का इस ( मध्यमस्याद्वाद रहस्य) ग्रन्थ में संग्रह किया गया हैं जिसमें सब से प्रथम एकान्तवादी और अनेकान्तवादी के बीच में विप्रतिपत्ति का आकार कैसा होना चाहिये उसका निरूपण हैं । विप्रतिपत्ति के आकार का समर्थन करने के बाद प्रथम श्लोक के विबेचन में (१) नय और प्रमाण के आधार से ध्वंस का स्वरूप (२) मेदामेद पर विवरण (३) समवायनिराकरण (४) चक्षु की अप्राप्यकारिता की सिद्धि (५) पुनः मेदाभेदनिरूपण (६) भेद और पृथक्त्व के स्वरूप का विचार (७) सांख्याभिमतसत्कार्यवाद का खण्डन (८) जैनमत से सदसत्कार्यवाद की स्थापना (९) क्षणिकवाद का खंडन - इन ९ विषयों पर चर्चा की गई है ।
द्वितीय श्लोक के अवतरण में आशंका के रूप में आत्मा की अनित्यता में बांधकों की उपस्थिति कर के ज्ञानादि गुणों से आत्मा के अभेद में भी बाधकों का उपस्थान किया है । फिर उस शंका के उत्तर में द्वितीय श्लोक के विवरण में (१) भोगपदार्थ विवेचन (२) आत्मा की एकान्तनित्यता का खण्डन और (३) एकान्त अनित्यता के खंडन की युक्तियाँ बताई गई हैं। तृतीय श्लोक के विवरण में एकान्तनित्य और एकान्तअनित्यवादी के मत में पुण्य पाप की असंगति बताई गई है । उसमें (१) अदृष्ट की सिद्धि (२) अदृष्ट के पौगलिकत्व तथा आत्मपरिणामरूपत्व की सिद्धि (३) अमूर्त से मूर्त का सम्बन्ध और उसका विभाव परिणाम - आदि पर पर्याप्त विवरण किया गया है ।
चतुर्थ श्लोक में एकान्तनित्यवादी और एकान्तअनित्यवादी के मत में अर्थकिया कारित्व की अनुपपत्ति का निरूपण हैं जिसमें अर्थक्रिया के स्वरूप का विवेचन तथा स्वभाव पर विवरण किया है ।
पंचम श्लोक में वस्तु का नित्यानित्यत्वादिरूप निर्दोषस्वभाव भगवान् ने किस तरह बताया है वह दर्शाने के लिये (१) सप्तभङ्गी का विस्तार से निरूपण (२) सप्तभङ्गी के स्वभावद्वैविध्य का निरूपण ( ४ ) ' सकृदुच्चरित ' ० न्याय के अर्थ का निरूपण किया गया है । प्रसंग से विस्तार से (१) तमोद्रव्यत्ववाद ( २ ) इश्वरकर्तृत्वखंडन और ( ३ ) सर्वज्ञसिद्धि का प्रतिपादन किया है ।
षष्ठ श्लोक सरल होने से उसके पर कुछ भी विवेचन किया नहीं है-इस श्लोक में गुड और सृष्ठ के संयोजन के दृष्टान्त से स्याद्वाद को निर्दोषता बताई गई हैं ।