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'कर्मसिद्धान्त इत्यादि सिद्धान्तों का अतिविस्तार से और रहस्यपूर्ण विवेचन केवल जैन दर्शन में ही उपलब्ध है और युक्ति--तर्क से आज भी अबाधित रहा हैं' इस सत्य के आधार पर जैनदर्शन के प्रतिपादन करने वाले श्री तीर्थकरदेवों में उनके अनुयायियों को यह अतूट श्रद्धा है कि वे अवश्य सर्वज्ञ थे और राग-द्वेष से पर थे। उनसे प्रतिपादित सिद्धान्तो के संग्रह करने वाले भागमशास्त्रों का अवगाहन किया जाय तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि इस दर्शन में वस्तु के किसी एक मात्र धर्म (स्वरूप) को ओर अंगुलीनिर्देश नहीं किया जाता है किन्तु उसमें सम्भवित सभी धर्मों का स्वीकार किया जाता है चाहे उसमें परस्पर विरोध का आभास भी क्यों न हो रहा हो ! जनदर्शन का यह सनातन प्रघोष रहा है कि सकल वस्तुसमूह अनन्तधर्मात्मक है-अनेकान्तात्मक है-उसमें से किसी एक अभिप्रेत धर्म का ही प्रतिपादन करने में अपूर्णता है । हाँ उस अभिप्रेत धर्म का प्रतिपादन करते समय दूसरे अनन्त धर्मों का अपलाप न किया जाय और उस धर्म के प्रतिपादन करने में अपना क्या उचित अभिप्राय या अपेक्षा है यह व्यक्त किया जाय तो उस एक धर्म के प्रतिपादन को भी समीचीन कहा जा सकता है । वास्तव में वस्तुगत अनन्तधर्मों का प्रतिपादन करने लगे तो समय का शायद अन्त होगा लेकिन उसका अन्त न होगा तथा अनेक पदार्थ भी ऐसे होते हैं जिसको जानते हुए भी हम उसके स्वरूप को शब्द से नहीं बता सकते इस लिये सर्वज्ञ-तीर्थंकरो ने सकल पदार्थ को जानते हुये भी उन सभी का अभिलाप अशक्य होने के कारण कतिपय भावों का ही स्वरूप बताया किन्तु खास उपदेश यह दिया गया कि जिस पदार्थ में आज हमें किसो एक अनित्य धर्म का दर्शन हो रहा है वह पदार्थ हो अपने आप में अनित्य होने पर भी नित्य है चूंकि उसकी दृश्यमान अवस्था केवल अल्पकालीन है किन्तु उस अवस्था का आधारभूत पदार्थ जो की दूसरे क्षण में अवस्थान्तर को प्राप्त कर लेता है वह तो स्थायो रहने से नित्य माना जा सकता है-जैसे कि १० ग्राम भार वाले सुवर्ण गोलक में से एक लम्बा तार खींचा जाता है तब वहाँ गोलकावस्था निवृत्त होती है और लम्बायमानावस्था जन्म लेती है किन्तु दोनों में१० ग्राम सुवर्ण तो वही रहता है। इस तरह सत्त्व-असत्त्व नित्यत्व-अनित्यव भेदाभेद आदि अनेक धर्मयुगल ऐसे होते हैं जिसमें आपाततः विरोध भास रहा हो फिर भो एक पदार्थ में उसका अस्तित्व भी देखने में आ रहा हो ।
वस्तुगत अनन्त धर्मों में से प्रत्येक का प्रतिपादन अशक्य होने के कारण तथा किसी एक काल में किसी एक वस्तु में कोई एक धर्म अथवा धर्मसमूह का हो प्रतिपादन शक्य होने के कारण उस धर्म के प्रतिपादन के समय वक्ता को उस वस्तु में उस धर्म को संगत करने वाला अपना अभिप्राय या अपेक्षा को स्पष्ट करने की आवश्यकता रहती है।