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सप्तमश्लोक का विवेचन महत्तापूर्ण है। प्रथम इस श्लोक का अन्वय किस तरह लगाना उसके पर विवेचन दिया हैं । तदनन्तर सत्त्वाऽसत्त्व, नित्याऽनित्यत्व, भेदाऽमेद, सामान्य विशेष-अभिलाप्याऽनभिलाप्यादि परस्पर विरुद्ध प्रतीयमानधर्मों का सामानाधिकरण्य जिन युक्तियों से सिद्ध होता है उन का प्रतिपादन किया है।
८ वे श्लोक में बौद्धमत से अनेकान्तवाद का समर्थन बताया है। ..
९ वे श्लोक में विस्तार से चित्ररूप पर विवेचन किया गया है। चित्ररूप को एकानेक मानने वाले दार्शनिकों के मत से स्याद्वाद का समर्थन किया है। अभिन्न पदार्थों में भी धर्मधर्मी भाव का समर्थन किया हैं । शास्त्रप्रसिद्ध उपसर्जनत्व पदार्थ का स्फुटीकरण किया है । शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को न मानने वाले बौद्ध पक्ष का भी खंडन किया गया है।
१० वे श्लोक में सांख्यमत से अनेकान्तवाद का समर्थन किया गया है
११ वे श्लोक में अनेकान्तवाद में चार्वाक की सम्मति की अनावश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। बाद में चार्वाकमत का पूर्वपक्ष और विस्तार से उसका खंडन भी किया गया है, शब्द की पौद्गलिकता का विस्तार से समर्थन किया गया है, शब्द नित्यानित्यत्व का विस्तार से विचार किया गया है, आत्मा की सिद्धि करके उसके विशेषस्वरूप का प्रतिपादन प्रमाणनयतत्वालोक के 'चैतन्यस्वरूपः ....[७-५६]' इस सूत्र के आधार पर किया गया है जिसमें ज्ञानाज्ञानात्मकस्वभाववादी भट्टमत का निराकरण किया है, आत्मा के देहपरिमाणवत्ता की सिद्धि ८१ श्लोकों में की है। एकात्मवाद का खंडन किया गया है । प्रसंग से कारणता के निरूपण में पांच अन्यथा सिद्धिओं का निरूपण किया गया है, जिसमें चतुर्थ अन्यथासिद्धि के निरूपण में ही मध्यम स्याद्वादरहस्य अपूर्ण रह गया है। - लघु स्याद्वाद० में १२ वे श्लोक पर भी विवेचन किया है जिसमें बुद्धिमान पुरुषों के लिये वीतराग सर्वज्ञ भगवन्त प्रतिपादित दुग्ध दही और धृत-तीनों में अनुगत गोरस के समान उत्पाद-व्यय स्थैर्य से मिश्रित ही वस्तु स्वीकारने योग्य बताई गई है।
बृहतस्याद्वाद. में केवल तीन श्लोक का ही सम्पूर्ण विवेचन पाया जाता है, चतुर्थ श्लोक का विवरण अपूर्ण ही उपलब्ध हो रहा है फिर भी प्रथम तीन श्लोकों का जितना विवरण मध्यमस्याबाद में मिलता है उससे भी विशद विवरण उन विषयों का इस बृहत्स्यावाद.. में पाया जाता है। इसमें मध्यम को अपेक्षा (१) प्रतियोगिता बिचार (२) न्यायमत से भन्योन्याभाव की अव्याप्यवृत्तिता का विचार तथा (३) जैनमत से अन्योन्याभाव की अव्याप्यवृत्तिला को विचार (४) वैशिष्ट्यवाद (५) प्रागभाव पर विमर्श इत्यादि अधिक विवेचन भी पाया जाता है।