Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 14
________________ प्राक्कथन परम प्रसन्नता की बात है कि इस कृतिके लिखने में परम पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराजकी प्रेरणा या इच्छा निमित्त कारण है । सिद्धक्षेत्र मुक्ता - गिरिसे नवम्बर १९९० में एक महानुभावका मुझे एक पत्र मिला था, जिसमें लिखा था "अभी मुक्तागिरि में परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर महाराजके समक्ष स्वयम्भूस्तोत्रके सम्पादन तथा उसमें प्रतिपादित दार्शनिक तत्त्वोंके विशद विवेचनके विषय में चर्चा हुई थी । उस समय आचार्यश्रीने इस कार्य के लिए आपके नामका सुझाव दिया था । क्योंकि आचार्यश्री आपकी बहुमुखी विद्वत्तासे परिचित हैं । निश्चय ही इस कार्यके लिए आप ही सर्वाधिक उपयुक्त विद्वान् हैं । हमें विश्वास है कि आप इस कार्यके लिए इनकार नहीं करेंगे ।" अतः मैंने पूज्य आचार्यश्री की आज्ञा या इच्छाको आशीर्वाद समझकर सहर्ष स्वीकार कर लिया । इस विषय पर कुछ लिखने के पूर्व मैंने श्रीमान् ( स्व० ) जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा सम्पादित और अनूदित स्वयम्भूस्तोत्रका तथा श्रीमान् पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा लिखित स्वयम्भूस्तोत्र की हिन्दी टीकाका अध्ययन किया । साथ ही स्वयम्भूस्तोत्र पर आचार्य प्रभाचन्द्र विरचित संस्कृत टीकाको भी ध्यान से पढ़ा । तदनन्तर मैंने अपनी अल्प बुद्धिके अनुसार स्वयम्भूस्तोत्र पर कुछ लिखना प्रारम्भ किया । मैंने स्वयम्भू स्तोत्र में आगत दार्शfor तत्वोंको यथाशक्ति और यथासम्भव स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है । फिर भी मेरे विवेचनमें भूलोंका रह जाना सम्भव है । क्योंकि ' को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्र' यह उक्ति मुझ पर भी लागू होती है । 1 मैं यहाँ यह बतला देना चाहता हूँ कि मुझे श्री जुगलकिशोर जी मुख्तारके अनुवादसे तथा श्री पं० पन्नालाल जीकी हिन्दी टीकासे और आचार्य प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीकासे पर्याप्त सहायता मिली है । आवश्यकतानुसार मैंने उनके भाव, अर्थ तथा शब्दों का ग्रहण किया है । सम्भव है कि कहीं-कहीं वाक्योंका भी ग्रहण हो गया हो । प्रस्तावनाके लिखने में भी मैंने उक्त दोनों महानुभावोंकी प्रस्तावना को आधार बनाकर कुछ लिखा है । इसके लिए मैं उक्त दोनों महानुभावों का आभारी हूँ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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