Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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१४.
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 लाल डोरे की छाया पड़ने से वह लाल हुआ सा जान पड़ता है इसी तरह सांख्य मत में आत्मा भोग रहित है तथा बुद्धि के संसर्ग से (छाया पड़ने से) बुद्धि का भोग आत्मा में प्रतीत होता है। इसी कारण आत्मा का भोग माना जाता है । यह 'जपा-स्फटिक' न्याय का अर्थ है । प्रकृति क्रिया करती है और पुरुष (आत्मा) उस क्रिया का फल भोगता है तथा बुद्धि से ज्ञात अर्थ को आत्मा अनुभव करता है यह अकारकवादी सांख्य का मत है । - इस प्रकार पहला-वादी जड़ और जड़ से उत्पन्न आत्मा ये दो तत्त्व और दूसरा वादी पुरुष और प्रकृति ये दो तत्त्व मानता है । कुछ भेद से दोनों को जड़ क्रियावादी (जड़ से 'जगत्' मानने वाले) कह सकते हैं। सूत्रकार कहते हैं कि दोनों मत युक्ति संगत नहीं हैं । यदि आत्मा महाभूतों की व्यवस्था से पैदा होता है तो उस व्यवस्था को बनाने-मिटाने वाला कौन ? उसका उपभोग करने वाला कौन ? उसको धारण करने वाला कौन ? यदि जड़ से आत्मा पैदा होता है तो बह जड़ का अंग हो जाता है न कि उससे अलग अंगी रहता है । इस प्रकार जड़ और चेतन को भिन्न तत्त्व नहीं मानने पर लोक के अभाव का प्रसंग उपस्थित होता है और यदि जड़ प्रकृति को ही कर्ता और आत्मा को अकर्ता माना जाय तो कई दूषण पैदा हो जाते हैं । यदि आत्मा अकर्ता है तो वह अभोक्ता भी होना चाहिए तो फिर यह दुःख और सुख का अनुभव किसे होता है ? मर कर जन्म कौन लेता है ? यदि आत्मा अकर्ता है तो उसे अलिप्त भी रहना चाहिए-जैसे कि प्रतिबिम्बित होने पर कांच को यह अनुभव नहीं होता कि वह रंगीन या नर्तित आकृतिमय है। इस प्रकार जगत् के अस्तित्व पर ही कुठाराघात हो जाता है। दोनों वादों से लोक की स्थिति सम्भव नहीं हो सकती । गये तो थे अन्धेरे से उजाले की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर; परन्तु पहले से भी अधिक अन्धकार-अज्ञान में जा पड़े। ...संति पंच महब्भूया, इहमेगेसि-माहिया ।
आयछट्ठो पुणो आहु, आया लोगे य सासए ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - आयछट्ठो - आत्मा छठा है, पुणो - फिर, आहु - कहते हैं, लोगे - लोक, यऔर, सासए - शाश्वत-नित्य।
भावार्थ - कोई कहते हैं कि इस लोक में महाभूत पाँच और छठा आत्मा है । फिर वे कहते हैं । 'कि आत्मा और लोक शाश्वत-नित्य हैं। .
दुहओ ण विणस्संति, णो य उप्पज्जए असं ।
सव्वेऽवि सव्वहा भावा, णियत्ति भावमागया ॥१६॥ - कठिन शब्दार्थ - दुहओ - दोनों प्रकार से, ण विणस्संति- नष्ट नहीं होते हैं, उप्पजए - उत्पत्ति होती है, सव्वहा- सर्वथा, णियत्ति भावं - नियति भाव को, आगया - प्राप्त हैं।
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